Wednesday, May 2, 2018

#074 - गीता अध्ययन एक प्रयास


*#074 - गीता अध्ययन एक प्रयास*

*ॐ*
*जय श्रीकृष्ण*

*गीता अध्याय 7 - दिव्य ज्ञान*


7/21
*यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयार्चितुमिच्छति !*
*तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम् !!*


7/22
*स तया श्रद्धया युक्तस्तस्याराधनमीहते !*
*लभते च ततः कामान्मयैव विहितान्हि तान् !!*


7/23
*अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम् !*
*देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यांति मामपि !!*


7/24
*अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः !*
*परं भावमजानन्तो ममाव्यायमानुत्तामम् !!*


7/25
*नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः !*
*मूढोअयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम् !!*


7/26
*वेदाहं समतितानी वर्तमानानि चार्जुन !*
*भविष्याणि च भूतानि मां तु वेद न कश्चन !!*


*भावार्थ*

श्रीकृष्ण अर्जुन से -
जो व्यक्ति जिस देवता की श्रद्धा से पूजा करने की इच्छा रखता है, उसी देवता में ही मैं (परमात्मा) उसकी श्रद्धा को दृढ़ कर देता हूँ. (7/21) उस श्रद्धा से युक्त वह व्यक्ति उस देवता की भावपूर्वक उपासना करता है और इस प्रकार अपनी इच्छा को पूर्ण करता है, पर वह इच्छापूर्ति मेरे द्वारा ही की गयी होती है. (7/22) परन्तु देवताओं की उपासना करने वाले अल्पबुद्धि-युक्त व्यक्ति को सीमित और नाशवान फल मिलता है, देवताओं की पूजा करने वाले देवलोक (देवताओं के पास) जाते हैं, पर मेरे भक्त मुझे ही प्राप्त होते हैं अर्थात उनका कल्याण मेरे द्वारा ही होता है. (7/23) बुद्धिहीन व्यक्ति मेरे परम, अविनाशी सर्वश्रेष्ठ भाव को नहीं जानते और मुझ (परमात्मा) को मनुष्य की तरह शरीर धारण करने वाला मानते हैं. (7/24) यह जो मूढ़ (अल्पज्ञ)व्यक्ति मुझे अज (अजन्मा) और अविनाशी ठीक तरह से नहीं जानते, उन सभी के समक्ष मैं योगमाया से प्रकट नहीं होता. (7/25) हे अर्जुन ! भगवान (परमात्मा) होनेके नाते मैं सब कुछ जानता हूँ. मैं भूतकाल में जो घटित हो चुका तथा जो वर्त्तमान में है और जो भविष्य में होगा, वह सब कुछ जानता हूँ पर मुझे भक्तों के अलावा कोई नहीं जानता. (7/26)

*प्रसंगवश*

भगवान (परमात्मा) व्यक्त भी हैं और अव्यक्त भी हैं. वे लौकिक भी हैं और अलौकिक भी हैं. भगवान (परमात्मा) देवताओं की उपासना करने वालों को उनकी उपासना का फल देते हैं. देवता सापेक्ष अमर (अविनाशी) हैं, सर्वदा अमर (अविनाशी) नहीं. भगवान निरपेक्ष अमर (अविनाशी) हैं.

भगवान (परमात्मा) समय-समय पर अवतार लेते हैं और मनुष्य रूप में इस पृथ्वी पर प्रकट होते हैं. अवतार रूप में प्रकट होते हुए भी वे अप्रकट रहते हैं.

सादर,
केशव राम सिंघल


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