Saturday, May 5, 2018

#076 - गीता अध्ययन एक प्रयास


*#076 - गीता अध्ययन एक प्रयास*

*ॐ*
*जय श्रीकृष्ण*

*गीता अध्याय 7 - दिव्य ज्ञान - से मेरी सीख*


शक्तियाँ दो प्रकार की होती हैं - एक अपरा (परिवर्तनशील) और दूसरी परा (अपरिवर्तनशील). अपरा और परा शक्तियों के संयोग से सम्पूर्ण संसार और जीवों की उत्पत्ति हुई. प्रलय के बाद केवल भगवान (परमात्मा) रहते हैं. वे व्यापक हैं. जीव परमात्मा का अंश है, जो केवल स्थूल, सूक्ष्म और कारणशरीररूप प्रकृति के साथ सम्बन्ध जोड़ने से यह जीव बना है. जीव विभिन्न कार्यों के लिए अपरा (भौतिक अपरा प्रकृति अर्थात परिवर्तनशील) शक्तियों का उपयोग (विदोहन) करता है.

यह संसार भगवान से ही उत्पन्न होता है, भगवान द्वारा रचाया-बसाया गया है और अंत में भगवान में ही लीन हो जाना है - ऐसा जानना 'ज्ञान' है, सबकुछ भगवान का स्वरूप ही है, भगवान के सिवाय दूसरा कुछ नहीं - ऐसा अनुभव हो जाना 'विज्ञान' है.

पंचमहाभूत और कारण नाम -
पृथ्वी - गंध,
जल - रस,
तेज (अग्नि) - रूप,
वायु - स्पर्श,
आकाश - शब्द

व्यक्ति के तीन

व्यक्ति के तीन गुण हो सकते हैं -
पहला, व्यक्ति जिसने परिवर्तनशील प्रकृति के साथ अपना सम्बन्ध मान लिया, वह भगवान (परमात्मा) को नहीं जान पाता. दूसरा, वह व्यक्ति जो भगवान (परमात्मा) की शरण में आ जाते हैं, वे तर जाते हैं, उनका कल्याण हो जाता है. तीसरा, वह व्यक्ति जो भगवान (परमात्मा) से विमुख होकर निषिद्ध आचरण में लग जाते हैं, ऐसे दुष्कृति व्यक्ति भगवान (परमात्मा) की शरण में नहीं होते हैं.

जो भगवान (परमात्मा) की शरण में होते हैं, वे भी दो प्रकार के हैं - पहला, भगवान की महत्ता समझकर उनकी शरण में आने वाले, और दूसरे, भगवान को साधारण व्यक्ति मानकर देवताओं की उपासना करने वाले.

भगवान (परमात्मा) को न जान पाने का मुख्य कारण राग-द्वेष है. जो राग-द्वेष से मुक्त होकर भगवान (परमात्मा) का आश्रय लेते हैं, वे भगवान को प्राप्त होते हैं, उनका कल्याण होता है.

सादर,
केशव राम सिंघल

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