क्षेत्र, क्षेत्रज्ञ और ब्रह्मानुभूति — आत्मसाधना की तत्वदर्शिता
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प्रतीकात्मक चित्र साभार NightCafe
क्षेत्र = शरीर
क्षेत्रज्ञ = शरीर को जानने वाला
शरीर (क्षेत्र) को जानने वाले दो प्रकार के होते हैं —
(1) जीवात्मा
(2) परमात्मा
ब्रह्म अनुभूति की पांच अवस्थाएँ बताई गई हैं —
(1) अन्नमय अनुभूति — क्षेत्र के अस्तित्व के लिए भोजन (अन्न) पर निर्भरता। इसे भौतिकतावादी अनुभूति भी कहा जा सकता है।
(2) प्राणमय अनुभूति — क्षेत्र के सजीव लक्षणों या जीवन रूपों में परम सत्य की अनुभूति
(3) ज्ञानमय अनुभूति — सजीव लक्षणों से आगे बढ़कर चिंतन, अनुभव और आकांक्षा
(4) विज्ञानमय अनुभूति — जीव का मन और जीवन के लक्षण जीव से भिन्न होते हैं। यह उच्चतर अनुभूति है।
(5) आनंदमय अनुभूति — सर्व-आनंदमय प्रकृति की अनुभूति। यह परम अवस्था है।
मनोमय अनुभूति जहाँ इच्छाओं, कल्पनाओं और विचारों की लहरों से युक्त होती है, वहीं विज्ञानमय अनुभूति विवेक, आत्म-चिंतन और बंधन-मोक्ष के बोध से युक्त होती है।
यह क्षेत्र चौबीस तत्वों का समूह है —
- पाँच महाभूत - पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश
- तीन अव्यक्त तत्व - अहंकार (अहं की भावना), बुद्धि (विवेक-शक्ति) और चित्त/अव्यक्त प्रकृति (महत्तत्त्व - प्रकृति की सूक्ष्म अवस्था)
- पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ - नेत्र, कान, नाक, जीभ और त्वचा
- पाँच कर्मेन्द्रियाँ - वाणी, पाँव, हाथ, गुदा और जननेन्द्रिय
- एक मन - इन्द्रियों को समन्वित करने वाला
- इन्द्रियों के पाँच विषय - रस (स्वाद), रूप (दृश्य), गंध, स्पर्श और शब्द (ध्वनि)
यही चौबीस तत्वों का सम्मुचय ही कार्यक्षेत्र (क्षेत्र) कहलाता है।
क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का आध्यात्मिक महत्व
गीता (13.1–13.3) में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा कि "इस शरीर को 'क्षेत्र' कहा जाता है, और जो इस क्षेत्र को जानता है वह 'क्षेत्रज्ञ' है। मैं (परमात्मा) समस्त क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ हूँ।" गीता 13.2 का यह अंश - "क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत।"
पंचकोशों के रूप में पाँच अनुभूतियाँ
ऊपर बताई गई पाँच अवस्थाएँ उपनिषदों में वर्णित पाँच कोशों (अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय, आनंदमय) से मिलती-जुलती हैं। यह संबंध स्पष्ट किया जा सकता है।
साधना में कार्यक्षेत्र का प्रयोग
शरीर और इसके तत्वों को साधना, सेवा, योग और आत्मसाक्षात्कार के लिए कैसे उपयोग किया जाए – यह विषय अध्यात्मिक साधकों के लिए उपयोगी हो सकता है।
योगशास्त्र के अनुसार शरीर (क्षेत्र) को शुद्ध और संयमित रखकर आत्मा (क्षेत्रज्ञ) की पहचान संभव होती है। पंचमहाभूतों के संतुलन, इन्द्रियों के निग्रह, मन की स्थिरता और बुद्धि की निर्मलता – यह सब आत्मसाधना में सहायक हैं। कर्मेन्द्रियों का उपयोग सेवा के लिए, ज्ञानेन्द्रियों का उपयोग सत्संग और श्रवण के लिए, तथा मन-बुद्धि का उपयोग आत्मचिंतन और ध्यान के लिए किया जाए, तभी क्षेत्र का परम उद्देश्य सिद्ध होता है।
सार
"क्षेत्र" और "क्षेत्रज्ञ" के इस गहन ज्ञान से हम यह समझ सकते हैं कि वह केवल शरीर नहीं है, बल्कि उसे जानने वाला चेतन सत्ता है। जब यह बोध पाँच अनुभूतियों के माध्यम से 'आनंदमय' स्तर तक पहुँचता है, तब आत्मसाक्षात्कार की पूर्णता होती है।
सादर,
केशव राम सिंघल
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