Wednesday, April 18, 2018

#070 - गीता अध्ययन एक प्रयास


*#070 - गीता अध्ययन एक प्रयास*
*ॐ*
*जय श्रीकृष्ण*

*गीता अध्याय 7 - दिव्य ज्ञान*


7/1
*श्रीभगवानुवाच*
*मय्यासक्तमनाः पार्थ योगं युञ्जन्मदाश्रयः ।*
*असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु ।।*


7/2
*ज्ञानं तेअहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषतः।*
*यञ्ज्ञात्वा नेह भूयोअन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते।।*


7/3
*मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये।*
*यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्वतः।।*


7/4
*भूमिरापोअनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च।*
*अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा।।*


7/5
*अपरिमेयमितस्त्वन्यान् प्रकृतिं विद्धि मे पराम्।*
*जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्।।*


*भावार्थ*

भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं -
हे अर्जुन ! जिसका मन मेरे में लग गया है और जिसे केवल मुझमें विश्वास है, वह जो भी कार्य (कर्मयोग, भक्तियोग) करता है, वह योग का अभ्यास ही है और ऐसा व्यक्ति मुझे (भगवान को) समग्र रूप से जान लेता है। जिस तत्व को तू जान सकता है, उसका मैं वर्णन करता हूँ, तू सुन। (7/1) अब मैं तुम्हें विज्ञान सहित ज्ञान (दिव्य ज्ञान) कहूंगा, जिसे जानने के बाद फिर इस विषय में जानने के लिए कुछ भी शेष नहीं रहेगा. (7/2) कई हजार मनुष्यों में से कोई एक इस प्रकार की सिद्धि के लिए प्रयत्न करता है और इस तरह की सिद्धि प्राप्त करने वालों में से कोई एक मुझे वास्तव में जान पाता है. (7/3) भूमि, जल, अग्नि, वायु, आकाश (पंचमहाभूत), मन, बुद्धि और अहंकार - आठ प्रकार से विभक्त मेरी अपरा (भौतिक) प्रकृतियाँ हैं. (7/4) हे महाबाहो (अर्जुन) ! इनके अतिरिक्त मेरी एक अन्य परा (चेतन) प्रकृति है, जो जीवरूप में इस जगत की भौतिक (अपरा) प्रकृति का उपयोग (विदोहन) कर रहे हैं. (7/5)


*प्रसंगवश*

अपरा = परिवर्तनशील
परा = अपरिवर्तनशील
जीव = परमात्मा का अंश, जो केवल स्थूल, सूक्ष्म और कारणशरीररूप प्रकृति के साथ सम्बन्ध जोड़ने से ही यह जीव बना है.

जीव अपने विभिन्न कार्यों के लिए अपरा शक्तियों (भौतिक प्रकृति) का उपयोग करता है. परा शक्ति (जीव) द्वारा यह संसार कार्यशील है. पराशक्ति (जीव) का नियंत्रण परमात्मा के पास है. जीव सर्वशक्तिमान नहीं, उसका स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं, वह तो परमात्मा के नियंत्रण के अधीन है. जीव रूप परा प्रकृति ने ही अपरा प्रकृति को धारण कर रखा है.

माया के प्रभाव के कारण ही जीव (परा) का अहंकार (अपरा शक्ति) सोचता है - "मैं इस संसार को जीत सकता हूँ. ये सारी भौतिक उपलब्धियां मेरी हैं." जब जीव भौतिक विचारों से मुक्त हो जाता है, तभी वह वास्तविक स्थिति को प्राप्त हो पाता है.

जीव संसार की सत्ता को महत्व देता है, तभी तो वह कामना, सुख-भोग की इच्छा के कारण जन्म-मरण के बंधन में है.

गीता अध्याय 7 में भगवान श्रीकृष्ण ने दिव्य ज्ञान कहा है, जिसे सुनने में लाभ ही है।

जिसका मन स्वाभाविक तौर से भगवान की ओर खिंच जाता है और जिसे भगवान में विश्वास हो जाता है, वह भगवान के समग्र रूप को जान पाता है। सब कुछ भगवान ही हैं।

सादर,
केशव राम सिंघल



No comments: