Thursday, December 28, 2017

#065 - गीता अध्ययन एक प्रयास


*#065 - गीता अध्ययन एक प्रयास*

*ॐ*

*जय श्रीकृष्ण*


*गीता अध्याय 6 - ध्यानयोग - श्लोक 26 से 32*

6/26
*यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम् !*
*ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत् !!*


6/27
*प्रशांतमनसं ह्येनं योगिनं सुखमुत्तम् !*
*उपैति शांतरजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम् !!*


6/28
*युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी विगतकल्मषः !*
*सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते !!*


6/29
*सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि !*
*ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शन !!*


6/30
*यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मई पश्यति !*
*तस्याहं न प्रणश्यामि स च में न प्रणश्यति !!*


6/31
*सर्वभूतस्थितं यो मां भजव्येकत्वमास्थित: !*
*सर्वथा वर्तमानोअपि स योगी मयि वर्तते !!*


6/32
*आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योअर्जुन !*
*सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः !!*


*भावार्थ*

(श्रीकृष्ण अर्जुन से)
यह अस्थिर और चंचल मन इधर-उधर घूमता-फिरता है, इसे वहां (इधर-उधर) से हटाकर परमात्मा के ध्यान में लगाएं. (6/26)

जिस व्यक्ति के सब पाप धुल गए हैं (तमोगुण अर्थात अप्रकाश, अप्रवृत्ति, प्रमाद और मोह वृत्तियाँ नष्ट हो गयी हैं), जिसका रजोगुण (लोभ, प्रवृति, नए-नए कर्मों में लगना, अशांति, स्पृहा) शांत हो गया है और जिसका मन निर्मल हो गया है, ऐसे ब्रह्मरूप बने व्यक्ति (योगी) को सात्तिव सुख मिलता है. (6/27)

इस प्रकार योग अभ्यास (परमात्मा के ध्यान) में निरंतर लगा आत्मसंयमी व्यक्ति (योगी) सभी प्रकार के भौतिक पापों से मुक्त हो जाता है और ब्रह्म (श्रीभगवान) के सान्निध्य में रहकर सर्वोच्च सुख का अनुभव करता है. (6/28)

अपने स्वरूप को देखने वाला ध्यानयोग से युक्त अंतःकरण वाला व्यक्ति (ध्यानयोगी) सभी जगह सभी जीवों में स्थित अपने स्वरूप (परमात्मा) को और सभी जीवों को अपने स्वरूप (परमात्मा) में देखता है. (6/29)

जो (व्यक्ति) सभी जगह मुझे (परमात्मा को) देखता है और मुझ (परमात्मा) में सभी जीवों को देखता है, उसके लिए न तो मैं (परमात्मा) कभी अदृश्य होता है आउट न वह मेरे (परमात्मा के) लिए अदृश्य होता है. (6/30)

सभी जीवों में जो मेरी (परमात्मा की) भक्तिपूर्वक सेवा करता है, वह हर प्रकार से मुझ (परमात्मा) में सदैव स्थित रहता है. (6/31)

हे अर्जुन ! जो व्यक्ति अपनी तुलना से सभी जगह समान रूप से देखता है चाहे सुख हो या दुःख, वह पूर्ण योगी है. (6/32)

*प्रसंगवश*

हमें परमात्मा की सत्ता को मानना चाहिए, तभी हम अपना अंतर्मन निरुद्ध कर परमात्मा की ओर लगा सकते हैं. इसमें कृष्ण का ध्यानयोग उपदेश हमें मार्ग दिखाता है.

सादर,

केशव राम सिंघल


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