Saturday, April 8, 2017

#064 - गीता अध्ययन एक प्रयास


*#064 - गीता अध्ययन एक प्रयास*

*ॐ*

*जय श्रीकृष्ण*

*गीता अध्याय 6 - ध्यानयोग - श्लोक 19 से 25*


6/19
*यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता !*
*योगिनो यतचित्तस्थ युञ्जतो योगमात्मनः !!*


6/20
*यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया !*
*यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति !!*


6/21
*सुखमात्यन्तिकं यत्तद्बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम् !*
*वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वतः !!*


6/22
*यं लब्ध्वा चापरं लाभ मन्यते नाधिकं ततः !*
*यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते !!*


6/23
*तं विद्याददुःखसंयोगवियोगं योगसंज्ञीतम् !*
*सा निश्चयेन योक्तव्यो योगोअनिर्विण्णचेतसा !!*


6/24
*संकल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषतः !*
*मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्ततः !!*


6/25
*सनी शनैरुपरमेद्बुद्धया धृतिगृहीतया !*
*आत्मसंस्थंमनः कृत्वा न किंचिदपिचिन्तयेत् !!*


*भावार्थ*

(श्रीकृष्ण अर्जुन से)
जैसे उस स्थान में जहाँ वायु स्पंदनरहित हो दीपक की लौ हिलती-डुलती नहीं है, उसे प्रकार योग का अभ्यास करने वाले व्यक्ति (ध्यानयोगी) का अंतर्मन वश में रहता है और वह आध्यात्म में स्थिर रहता है. (6/19)

जिस अवस्था में योग का अभ्यास करने से चित्त निरुद्ध (एकाग्र) हो जाता है और जिस अवस्था में वह विशुद्ध मन से अपने आपको अनुभव करता हुआ अपने-आपमें संतुष्ट हो जाता है. (6/20)

जो परम सुख (शांति) दिव्य और बुद्धि से ग्रहणीय है, ऐसा अनुभव करता है और उस सुख में स्थिर रहता है (तल्लीन हो जाता है), वह व्यक्ति (ध्यानयोगी) सत्य से फिर विचलित नहीं होता. (6/21)

जिस लाभ के प्राप्त होने पर उससे अधिक कोई दूसरा लाभ नहीं मानता और परमात्मा में स्थिर रहने से वह बड़े दुःख से भी विचलित नहीं होता. (6/22)

जो दुखों के संयोग से रहित है, उसी को योग समझना चाहिए. न उकताए चित्त (धैर्य) से इस योग को निश्चित ही करना चाहिए. (6/23)

[व्यक्ति (योगी) को चाहिए कि] संकल्प से पैदा होने वाली सभी कामनाओं को सभी तरह से त्यागकर और अपने अंतर्मन से इंद्रियों (शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध) को सभी प्रकार से मुक्त कर धैर्य से बुद्धि को धीरे-धीरे वश में करते हुए अपने अंतर्मन को परमात्मा में स्थापित करें, कुछ अन्य चिंतन ना करें. (6/24, 25)

*प्रसंगवश*

मन वस्तुतः बहुत चंचल होता है, पर हमें यह सीखना चाहिए कि ध्यानयोग के अभ्यास के लिए अंतर्मन को वश में करने की जरूरत है. ध्यानयोग में योगी इन्द्रियाँ-विषयों से दूर रहकर अपने स्वरूप में मन लगाने से वह अपने अंतर्मन को परमात्मा के ध्यान में स्थापित कर लेता है.

सादर,

केशव राम सिंघल



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