Friday, January 5, 2018

#066 - गीता अध्ययन एक प्रयास


*#066 - गीता अध्ययन एक प्रयास*

*ॐ*

*जय श्रीकृष्ण*

*गीता अध्याय 6 - ध्यानयोग - श्लोक 33 से 36*


6/33
*अर्जुन उवाच*
*योअयं योगस्त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन !*
*एतस्याहं न पश्यामि चञ्चलत्वात्स्थितिं स्थिराम् !!*


6/34
*चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाधि बलवदृढम्!*
*तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् !!*


6/35
*श्रीभगवानुवाच*
*असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम् !*
*अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते !!*


6/36
*असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मतिः !*
*वश्यात्मना तु यतता शक़्योअवाप्तुमुपायतः !!*


*भावार्थ*

अर्जुन (श्रीकृष्ण से) कहते हैं:
हे मधुसूदन ! आपने जिस योग का वर्णन किया है, चञ्चल होने के कारण वह मेरे लिए स्थायी नहीं दिखता है. (6/33)

हे कृष्ण ! कारण कि मेरा मन चंचल, विचलित कर देने वाला, हठीला और बलवान है, उसको रोकना (वश में करना) मुझे वायु को वश में करने से भी कठिन लगता है. (6/34)

श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं -
हे महाबाहो कुन्तीपुत्र (अर्जुन) ! इसमें कोई संशय नहीं कि यह मन बहुत ही चंचल है, जिसे वश में करना अत्यंत कठिन है, फिर भी अभ्यास और वैराग्य द्वारा इसे वश में किया जा सकता है. (6/35)

जिसका मन संयमित नहीं है, उसके द्वारा योग पाना कठिन है, लेकिन उपाय के साथ कोशिश करने वाले और वश में किए (संयमित) मन वाले व्यक्ति को यह योग प्राप्त हो सकता है, ऐसा मैं मानता हूँ. (6/36)

*प्रसंगवश*

गीता अध्याय 6 के श्लोक 33 और 34 में अर्जुन ने मन के चंचल और हठी होने की बात रखते हुए इस जिज्ञासा को सामने रखा कि कैसे मन को काबू में किया जाए. श्रीकृष्ण ने श्लोक 35 और 36 में अर्जुन की जिज्ञासा को शांत करने का प्रयास किया है और यह सन्देश दिया कि अभ्यास और वैराग्य द्वारा मन को काबू में किया जा सकता है.

अभ्यास = मन को बार-बार लक्ष्य (ध्येय) की ओर लगाना
वैराग्य = पदार्थ से विरक्ति और मन का आत्मा में प्रवृत होना.

सादर,

केशव राम सिंघल



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