Sunday, February 26, 2017

#062 - गीता अध्ययन एक प्रयास


*#062 - गीता अध्ययन एक प्रयास*

*ॐ*

*जय श्रीकृष्ण*


*गीता अध्याय 6 - ध्यानयोग - श्लोक 11 से 15*

6/11
*शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः !*
*नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम !!*


6/12
*तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः !*
*उपविश्यासने युञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये !!*


6/13
*समंकायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः !*
*सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन् !!*


6/14
*प्रशान्तात्मा विगतभीर्ब्रह्मचारिव्रते स्थितः !*
*मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत् मत्परः !!*


6/15
*युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी नियतमानसः !*
*शान्तिं निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति !!*


*भावार्थ*

(श्रीकृष्ण अर्जुन से)
साफ़ जगह पर जहां कुश, मृगछाला और कपड़ा (वस्त्र) बिछा हो, जो न अत्यंत ऊंचा हो और न ही नीचा हो, ऐसे अपने आसान को स्थिर कर ! (6/11)

इस आसान पर बैठकर अंतःकरण (चित्त, मन) और इन्द्रियों की क्रियाओं को वश में रखकर अपने अन्तःकरण (मन) को एकाग्र कर अपने अंतःकरण (मन) की शुद्धि के लिए योग का अभ्यास कर ! (6/12)

अपने शरीर, सर और गले को सीधा स्थिर कर और इधर-उधर न देखकर अपनी नासिका के अग्रभाग को देखते हुए स्थिर होकर बैठ ! (6/13)

जिसका अंतःकरण (मन) शांत है, जो भय मुक्त है और जिसका जीवन संयत और नियत है (अर्थात जो शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध से दूर रहता हुआ मान, सम्मान और शरीर की आराम से दूर रहता हो), ऐसा सावधान व्यक्ति (जिसे हम ध्यानयोगी कह सकते हैं) अंतःकरण (मन) को संयम कर परमात्मा (श्रीभगवान, ब्रह्म) में अपने अंतःकरण (मन) को लगाकर परमात्मा (श्रीभगवान, ब्रह्म) के ध्यान में बैठ ! (6/14)

संयमित मन वाला व्यक्ति अपने अंतःकरण (मन) को इस तरह सदा श्रीभगवान के ध्यान में लगाता हुआ परमनिर्वाण (मोक्ष) स्थिति को प्राप्त करता है. (6/15)

सादर,

केशव राम सिंघल



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