*ॐ*
*जय श्रीकृष्ण*
*गीता अध्याय 5 - कर्म संन्यास योग - श्लोक 25 से 29*
5/25
*लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मषा: !*
*छिन्नद्वैधा यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः !!*
5/26
*कामक्रोधवियुक्तानां यतीनां यतचेतसाम् !*
*अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम् !!*
5/27
*स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवो: !*
*प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ !!*
5/28
*यतेंद्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायणः !*
*विगेटइच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः !!*
5/29
*भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम् !*
*सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति !!*
*भावार्थ*
(श्रीकृष्ण अर्जुन से)
मन-बुद्धि-इंद्रियों सहित जिनका शरीर वश में है, जो संपूर्ण प्राणियों के हित में लगे हुए हैं, जिनके सभी संशय मिट गए हैं, जिनके सभी दोष समाप्त हो गए हैं, ऐसे विवेकी व्यक्ति निर्वाण ब्रह्म प्राप्त करते हैं. (5/25)
काम-क्रोध से सर्वदा दूर, आत्मसंयमी (अपना अंतःकरण जीतने वाले) और अपने स्वरूप का वास्तविक बोध जिन्हें हो गया हो, ऐसे व्यक्तियों (सांख्ययोगियों) के लिए सभी समय (शरीर रहते व् शरीर छूटने के बाद) निर्वाण ब्रह्म परिपूर्ण है. (5/26)
समस्त इन्द्रियों को बाहर ही छोड़कर और आँखों की दृष्टि को भौंहों के मध्य केंद्रित कर प्राण और अपान वायु को नथुनों के भीतर रोककर जिसकी इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि अपने वश में है, जो मोक्ष के लिए तत्पर है और जिसने इच्छा, भय और क्रोध को सर्वदा के लिए त्याग दिया है, ऐसा व्यक्ति (मुनि, योगी) सदा ही मुक्त है. (5/27, 28)
भगवान ही सभी यज्ञों और तापों के भोक्ता, समस्त लोकों और देवताओं के ईश्वर और समस्त जीवों का उपकारी और हितैषी है, ऐसा जानकर व्यक्ति (भक्त) परमशान्ति प्राप्त करता है. (5/29)
(गीता अध्याय 5 समाप्त)
*प्रसंगवश*
हमें कर्म करना चाहिए और साथ ही कर्म करने का ज्ञान आना चाहिए. यदि हम कर्म करते हैं, पर कर्म करने की विद्या का हमें ज्ञान नहीं है अथवा कर्म करने की विद्या *का ज्ञान तो है पर कर्म नहीं करते, तब दोनों ही स्थितियों में हमारे द्वारा सुचारुरूप से कर्म नहीं होते हैं. इसलिए कर्म करने के साथ कर्मों को जानना भी महत्वपूर्ण है.
सादर,
केशव राम सिंघल
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