*ॐ*
*जय श्रीकृष्ण*
*गीता अध्याय 5 - कर्म संन्यास योग - श्लोक 21*
5/21
*बाह्यस्पर्शेष्वसत्कात्मा विन्दत्यात्मनि यत्सुखम् !*
*स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते !!*
*भावार्थ*
(श्रीकृष्ण अर्जुन से)
बाहरी विषयों (शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, प्राण, शब्द, स्पर्श आदि) में आसक्तिरहित अंतःकरण (मन) वाला व्यक्ति अंतःकरण (मन) में जो सात्विक आनंद (सुख) है, वह उसे प्राप्त होता है, फिर वह ब्रह्म (परमात्मा) में अभिन्नभाव से स्थित व्यक्ति अक्षय आनंद (सुख) का अनुभव करता है.
*प्रसंगवश*
बाहरी विषयों और पदार्थों से हमारा सम्बंध हो जाता है, और हम इन्हें सुख का साधन मान बैठते हैं. पर बाहरी विषयों और पदार्थों से हमारा सम्बन्ध अवास्तविक है, यह समझने की जरुरत है. वास्तव में परमात्मा के साथ हमारा सम्बन्ध वास्तविक है. हम इस भौतिक जगत में सुख की इच्छा से बाहरी विषयों और पदार्थों से अज्ञान के कारण अपना सम्बन्ध मान बैठते हैं, लेकिन परिणाम में हमें दुःख ही मिलता है. बेहतर है कि हम बाहरी विषयों और पदार्थों से अपनी आसक्ति (राग और मोह) ख़त्म कर दें, इसी में हमारा कल्याण है. हमें परमात्मा के साथ अपना सम्बन्ध अभिन्नभाव से कायम करने का प्रयत्न करना चाहिए, तभी हम वास्तविक आनंद प्राप्त कर पाएंगे.
सादर,
केशव राम सिंघल
No comments:
Post a Comment