*ॐ*
*जय श्रीकृष्ण*
*गीता अध्याय 5 - कर्म संन्यास योग - श्लोक 19 और 20*
5/19
*इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः !*
*निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिताः !!*
5/20
*न प्रह्रण्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम् !*
*स्थिरबुद्धिरसम्मूढो ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः !!*
*भावार्थ*
(श्रीकृष्ण अर्जुन से)
जिनका (जिन व्यक्तियों का) अंतःकरण (मन) समभाव (समता) में स्थित है, उन्होंने जीते-जी (इस जीवित अवस्था में) ही संपूर्ण संसार जीत लिया है, क्योंकि ब्रह्म (परमात्मा) निर्दोष और सम है, इसलिए वे (सभी व्यक्ति) ब्रह्म (परमात्मा) में स्थित रहते हैं. (5/19)
जो व्यक्ति प्रिय को पाकर हर्षित न हो और अप्रिय को पाकर उद्विग्न (विचलित) न हो, वह स्थिरबुद्धिवाला ज्ञानी व्यक्ति ब्रह्म (परमात्मा) को जाननेवाला ब्रह्म में स्थित रहता है. (5/20)
*जिज्ञासा*
*अंतःकरण में समता कब आती है?*
परमात्मा का ध्यान करने से जब मन-बुद्धि में राग-द्वेष, कामना, विषमता आदि का सर्वदा अभाव हो जाता है, तब अंतःकरण में स्वतः ही समता आ जाती है. सभी कुछ तो परमात्मा (भगवान) का है तो फिर किसी से कैसा द्वेष, राग या मोह .... यही भाव हमें समता की ओर ले जाता है.
*प्रिय और अप्रिय को प्राप्त करना क्या है?*
शरीर, इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि के अनुसार अनुकूल प्राणी, पदार्थ, घटना या परिस्थिति की प्राप्ति होना ही 'प्रिय' को प्राप्त करना है और शरीर, इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि के अनुसार प्रतिकूल (अनुकूल के विपरीत) प्राणी, पदार्थ, घटना या परिस्थिति की प्राप्ति होना ही 'अप्रिय' को प्राप्त करना है.
सादर,
केशव राम सिंघल
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