*ॐ !*
*जय श्रीकृष्ण !*
*गीता अध्याय 3 - कर्म योग - श्लोक 10 से 13*
*सहयज्ञा: प्रजा: सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापति: !*
*अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोअस्त्विष्टकामधुक् !!* (3/10)
*देवांभावयतानेन ते देवा भावयंतु व: !*
*परस्परन् भावयंत: श्रेय: परमवाप्स्यथ !!* (3/11) .
*भावार्थ* - (श्रीकृष्ण अर्जुन से) - सृष्टि के प्रारंभ में प्रजापति (ब्रह्माजी) ने कर्तव्य-कर्मों के विधान के साथ प्रजा (मानव आदि) की रचना की और कहा कि कर्तव्य-पालन (यज्ञ) से खूब समृद्ध हो (और) यह कर्तव्य-पालन (यज्ञ) की चाही इच्छा पूरी करने वाला हो.
अपने कर्तव्य-कर्म द्वारा देवताओं को प्रसन्न करो और वे देवतागण तुमको प्रसन्न (उन्नत) करेंगे और (इस प्रकार) एक-दूसरे को प्रसन्न (उन्नत) करते हुए परम् कल्याण को प्राप्त करो.
(इस श्लोक में श्रीकृष्ण अर्जुन को ब्रह्माजी के वचनों के माध्यम से कर्तव्य-कर्म करने का उपदेश देते हैं.)
*इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः !*
*तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः !!* (3/12)
*भावार्थ* - जीवन की वांछित आवश्यकताएं यज्ञ (कर्तव्य-पालन) करने से प्रसन्न होकर निश्चय ही तुम्हें देवतागण प्रदान करेंगे. दूसरों की सेवा के बिना दी गयी वस्तुएं जो व्यक्ति भी उपभोग करता है, वह चोर है.
*यज्ञशिष्टाशिनः संतो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषै: !*
*भुञ्जते ते त्वघं पापा छे पचन्त्यात्मकारणात् !!* (3/13)
*भावार्थ* - यज्ञ (कर्तव्य-पालन) सम्पन्न होने के बाद ग्रहण किए जाने वाला प्रसाद ग्रहण करने वाले संत (भक्त, व्यक्ति) सभी प्रकार के पापों से छुटकारा पाते हैं, लेकिन जो अपने इन्द्रियसुख के लिए ही कर्म करते हैं, वे पापी पाप का ही सेवन करते हैं. (यहां यह समझने की बात है कि कर्तव्य-पालन करने के बाद मिलने वाला पारिश्रमिक, वेतन या व्यवसाय-लाभ भी प्रसाद ही है.)
*प्रसंगवश*
प्रजापति ब्रह्माजी हैं, वे सृष्टि के रचयिता और उसके स्वामी हैं. वे अपनी प्रजा के कल्याण के लिए प्रयासरत रहते हैं. मानव को ब्रह्माजी की कृपा के कारण ही विवेक-शक्ति मिली हुई है. ब्रह्माजी की प्रजा में देवता, ऋषि, पितर, मनुष्य, पशु, पक्षी, वृक्ष, पेड़-पौधे आदि सभी शामिल हैं, पर श्लोक 3/10 में प्रजा पद विशेषरूप से मानव के लिए ही प्रयुक्त हुआ है.
कर्मयोग = निस्वार्थभाव से कर्तव्य-पालन अर्थात कर्तव्य-कर्म करना.
कर्मयोगी सदा निस्वार्थ भाव से दूसरों की सेवा और कर्म करने के लिए तत्पर रहता है. कर्मयोगी सदा देने (अर्पित करने) का भाव रखता है.
मनुष्य कर्मयोनि है. मनुष्य का उद्देश्य कर्तव्य-कर्म करना है.
सादर,
केशव राम सिंघल
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