*ॐ*
*जय श्रीकृष्ण*
*गीता अध्याय 3 - श्लोक 20*
*कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः !*
*लोकसङ्ग्रहमेवापि संपश्यन्कर्तुमर्हसि !!* (3/20)
*भावार्थ* - (श्रीकृष्ण अर्जुन से) - राजा जनक जैसे अनेक महापुरुष भी कर्म के द्वारा ही परमसिद्धि (परमात्मा) को प्राप्त हुए थे. इसलिए सामान्य लोगों का विचार करते हुए (लोकसंग्रह को देखते हुए) तू भी निष्काम भाव से कर्म करने योग्य है अर्थात् तुझे भी निष्काम भाव से अपना कर्म करना चाहिए.
*हमें सदैव याद रखना चाहिए* -
कर्मयोग बहुत ही पुरातन योग है. कर्मयोग परमसिद्धि / मुक्ति का साधन है.
*चलते-चलते*
हमने मनुष्य योनि में जन्म लिया है और इस संसार में हम अपनी मुक्ति के लिए आए हैं. हमें अनेक भौतिक वस्तुएं इस संसार में प्राप्त होती हैं, जैसे - शरीर, धन, मकान आदि. जब हमारा शरीर मृत हो जाता है अर्थात् आत्मा यहाँ से जाता है तो सभी प्राप्त भौतिक वस्तुएं यहीं छूट जाती हैं. ये सब वस्तुएं हमारी नहीं हैं, वरन् संसार के सेवार्थ हमें प्राप्त हुई हैं. सेवा करने से हमें योग मिलता है. यही तो कर्मयोग है. कर्म संसार के लिए और योग अपने लिए.
सादर,
केशव राम सिंघल
1 comment:
singhal g Bahut achcha hai keep it up
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