Wednesday, April 9, 2025

#094 - गीता अध्ययन एक प्रयास - प्रसंगवश - सोमयज्ञ और अनन्य भक्ति

गीता अध्ययन एक प्रयास 

जय श्रीकृष्ण

गीता अध्याय 9 - ज्ञान विज्ञान 

प्रसंगवश - सोमयज्ञ और अनन्य भक्ति 

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क्या कर्मकांड (सकाम कर्म) और भक्ति हमें एक ही लक्ष्य तक ले जाते हैं? आइए गीता के प्रकाश में देखें।


सोमयज्ञ


सोमयज्ञ वेदों में वर्णित सकाम कर्म (फल की कामना से युक्त कर्म) है। गीता में भगवान् कृष्ण कहते हैं कि सोमयज्ञ करने वाले व्यक्ति पवित्र देवलोक को पाते हैं और स्वर्ग के दिव्य भोगों का आनंद लेते हैं। सोमयज्ञ में सोम पौधे के रस को अग्नि में अर्पित किया जाता है। वर्तमान समय में सोमयज्ञ का अभ्यास बहुत कम हो गया है। जिस सोम रस का प्रसंग गीता में दिया गया है, कहा जाता है कि वह सोमवल्ली लता या सोमवृक्ष के पत्ते का रस होता है। यह भी कहा जाता है कि सोमवल्ली या सोमवृक्ष के पत्ते का रस निकाला जाए तो वह बहुत श्रेष्ठ होता है। रसेन्द्रचूड़ामणि में एक श्लोक है - "इयं सोमकला नाम वल्ली परमदुर्लभा। अनया बद्धसूतेन्द्रो लक्षवेधी प्रजायते।।" सोमवल्ली लता या सोमवृक्ष आज के समय में अत्यंत दुर्लभ है। अतः सोमयज्ञ करना दुर्लभ है, फिर भी सोमयज्ञ का दार्शनिक पहलू यह हो सकता है कि हम अपने कर्म और विचारों को शुद्ध कर भगवान् की आराधना के साथ जीवन में अच्छे कर्म करें। यह एक विचारणीय बिंदु है कि वैदिक काल में सोमरस को न केवल भौतिक रूप से, बल्कि प्रतीकात्मक रूप से भी आत्मा के अमृत या शुद्धिकरण के साधन के रूप में देखा जाता था। यह कथन कि "हम अपने कर्म और विचारों को शुद्ध कर भगवान की आराधना के साथ जीद्धिवन में अच्छे कर्म करें" सोमयज्ञ के मूल उद्देश्य—आत्म-शुद्धि और समर्पण—को आधुनिक संदर्भ में जीवंत करता है।  यहाँ यह ध्यान रखने वाली बात है कि  "मुँह में राम और बगल में छुरी" नहीं होना चाहिए। यह सोमयज्ञ जैसे कर्मकांडों के बाह्य प्रदर्शन से परे हृदय की शुद्धता और कर्म की सात्विकता की ओर इशारा करता है। आज के समय में, जब सोमयज्ञ जैसे कर्मकांड संभव नहीं हैं, तो इसे हम ध्यान, सेवा, और सत्यनिष्ठा जैसे आंतरिक यज्ञों से जोड़ सकते हैं। उदाहरण —जैसे, दूसरों की निःस्वार्थ सेवा को एक "सोमयज्ञ" मानना, जहाँ हम अपनी ऊर्जा को समाज के कल्याण में अर्पित करते हैं। विद्वानों में सोमवल्ली लता या सोमवृक्ष की पहचान को लेकर मतभेद हैं। कुछ इसे *Ephedra sinica* (एक उत्तेजक पौधा) मानते हैं, जो मध्य एशिया में पाया जाता था। अन्य इसे *Sarcostemma acidum* या *Amanita muscaria* (एक प्रकार का मशरूम) से जोड़ते हैं। ऋग्वेद में इसके गुणों का वर्णन है—यह सुगंधित, तीक्ष्ण स्वाद वाला, और शारीरिक-मानसिक शक्ति बढ़ाने वाला बताया गया है।  


सोमयज्ञ को केवल भौतिक कर्मकांड तक सीमित नहीं देखा जाना चाहिए। इसको हम एक प्रतीकात्मक प्रक्रिया भी मान सकते हैं। सोमयज्ञ आत्मशुद्धि का प्रतीक हो सकता है। सोमरस को सोमवल्ली या सोमवृक्ष के पत्तों से निचोड़ना, शुद्ध करना और अग्नि में अर्पित करना आत्मा के शुद्धिकरण की प्रक्रिया को दर्शाता है। जैसे सोम को पवित्र किया जाता है, वैसे ही हम मन को संयम और भक्ति से शुद्ध कर सकते हैं। सोमयज्ञ को हम समर्पण का प्रतीक मान सकते हैं। जिस प्रकार सोमरस को अग्नि में अर्पित करना पूर्ण समर्पण का संकेत है। यह प्रक्रिया मन के विकारों को "निचोड़कर" (संयम से) और उन्हें ईश्वर को अर्पित करने (अहंकार का त्याग) की ओर संकेत करती है। यह हमें सिखाता है कि अपने श्रेष्ठ गुणों को परमात्मा को समर्पित करने से ही सच्चा फल मिलता है। सोमयज्ञ को अमृतत्व की खोज का एक साधन माना जाता रहा और सोम रस को "अमृत" कहा गया। दार्शनिक रूप से, सोमयज्ञ उस आंतरिक आनंद या चेतना की ओर इशारा करता है जो जन्म-मृत्यु के चक्र से परे है। गीता में श्रीकृष्ण इसी ओर संकेत करते हैं कि सकाम कर्म (जैसे सोमयज्ञ) अस्थायी फल देते हैं, जबकि निष्काम भक्ति स्थायी मुक्ति देती है।  


सोमयज्ञ वैदिक परंपरा का एक प्रमुख कर्मकांड है, जिसका उल्लेख ऋग्वेद में सर्वाधिक बार मिलता है। ऋग्वेद के नवम मंडल में 114 सूक्त सोम को समर्पित हैं, जिनमें सोम को देवता, औषधि, और अमृत के रूप में वर्णित किया गया है। सोमयज्ञ में सोम पौधे के रस को निचोड़कर, उसे शुद्ध करने के बाद अग्नि में अर्पित किया जाता था। यह यज्ञ मुख्य रूप से इंद्र, अग्नि और अन्य देवताओं को प्रसन्न करने के लिए किया जाता था। सोम यज्ञ के चार उद्देश्य (देवताओं को प्रसन्न करना, पापमुक्ति, स्वर्गप्राप्ति, और सामाजिक शांति) वास्तव में इसके बाह्य लक्ष्य हैं, आंतरिक रूप से, सोम यज्ञ मन की शुद्धि और आत्मा को उच्च लोकों से जोड़ने का माध्यम था।  


वर्तमान समय में सोमयज्ञ का अभ्यास भले ही कम हो गया हो, पर इसका दर्शन जीवंत है। इसे हम निम्न रूप में देख सकते हैं - 


(1) सोमरस की जगह आज हम मंत्र और ध्यान के द्वारा मन को शुद्ध करने का प्रयास कर सकते हैं ।  

(2) सेवा और अच्छे कर्मों को समाज और ईश्वर के लिए समर्पित करना एक प्रकार का आधुनिक "यज्ञ" है।  


अनन्य भक्ति 


गीता श्लोक 9/22—"अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते। तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्"— में अनन्य भक्ति का सार दिया गया है। यहाँ "अनन्य" का अर्थ है "बिना किसी अन्य के प्रति आसक्ति" और "चिन्तयन्तो मां" का अर्थ है "केवल मुझ पर मन को केंद्रित करना।" श्रीकृष्ण कहते हैं कि ऐसे भक्तों की हर चिंता (योग: जो अभी नहीं है उसे प्राप्त करना; क्षेम: जो प्राप्त है उसे सुरक्षित रखना) वे (भगवान्) स्वयं संभालते हैं। अनन्य भक्ति का अर्थ है कि भक्त का मन केवल भगवान पर ही केंद्रित हो, और वह किसी अन्य चीज में नहीं भटके। मन का केवल भगवान पर केंद्रित होना "अनन्याश्चिन्तयन्तो मां" के भाव को पूरी तरह प्रतिबिंबित करता है। यह एकाग्रता पूजा-पाठ तक सीमित नहीं रहती, बल्कि जीवन के हर क्षण में भगवान के प्रति समर्पण और विश्वास को दर्शाती है। उदाहरण के लिए, यह कर्म में निष्कामता, विचारों में पवित्रता, और व्यवहार में करुणा के रूप में प्रकट हो सकती है।  


अनन्य भक्ति के लक्षण  


(1) भगवान् के प्रति कनिष्ठता - भक्त का मन भगवान के अतिरिक्त कहीं और नहीं भटकना चाहिए। उसी प्रकार जैसे हनुमान ने भगवान् राम के प्रति पूर्ण निष्ठा दिखाई।  

(2) निष्कामता -  भक्ति फल की कामना से मुक्त होनी चाहिए। भक्त केवल भगवान के प्रेम और कृपा का आकांक्षी होता है, न कि सांसारिक लाभ का। रोज़मर्रा के जीवन में निष्कामता के लिए उदाहरण —जैसे, कठिन परिस्थितियों में शांति बनाए रखना या दूसरों के प्रति क्रोध के बजाय क्षमा का भाव रखना। 

(3) नित्य संयोग - भक्त हर पल भगवान से जुड़ा रहना चाहिए, चाहे वह कार्य करता हो, सोचता हो, या विश्राम करता हो।  


 अनन्य भक्ति आत्मा का परमात्मा में विलय है। जैसे नदी सागर में मिलकर अपनी अलग पहचान खो देती है, वैसे ही भक्त भगवान में लीन हो जाता है। गीता में अनन्य भक्ति की सीख बार-बार आती है (जैसे 18/66 में "सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज") कि अनन्य भक्ति ही अंतिम मुक्ति का साधन है।  


अनन्य भक्ति केवल मंदिर में मूर्ति के सामने बैठना नहीं है। यह जीवन का एक दृष्टिकोण है। जैसे अपने हर कार्य को भगवान को अर्पित करना, जैसे अर्जुन ने युद्ध को भगवान् श्रीकृष्ण की इच्छा मानकर लड़ा। हर परिस्थिति में भगवान पर भरोसा रखना, जैसे द्रौपदी ने चीरहरण के समय किया। भगवान को मित्र, गुरु, या प्रियतम के रूप में देखना, जैसा कि अर्जुन ने भगवान् श्रीकृष्ण को मित्र और गुरु माना। जैसा कि मीरा ने भगवान् श्रीकृष्ण को प्रियतम के रूप में देखा।  


सोमयज्ञ और अनन्य भक्ति  

 

सोमयज्ञ सकाम कर्म का प्रतीक है, जो अस्थायी फल देता है। अनन्य भक्ति निष्कामता का मार्ग है, जो स्थायी शांति और मुक्ति देता है। सोमयज्ञ बाह्य विधि-विधान पर आधारित है, जबकि अनन्य भक्ति हृदय की शुद्धता और समर्पण पर। सोमयज्ञ स्वर्ग जैसे सीमित लोक देता है, पर अनन्य भक्ति भगवान के साथ एकता प्रदान करती है।  


सार 


सोमयज्ञ से हमें यह शिक्षा मिलती है कि कर्म का महत्व है, पर उसका लक्ष्य शुद्धि और समर्पण होना चाहिए। अनन्य भक्ति हमें यह सिखाती है कि जब यह समर्पण पूर्ण हो जाता है, तो कर्मकांडों की आवश्यकता समाप्त हो जाती है, और भक्त सीधे भगवान के चरणों में पहुँच जाता है।  


सोमयज्ञ और अनन्य भक्ति के दोनों पहलू जीवन के दो छोरों को दर्शाते हैं—एक जो साधना की शुरुआत है (कर्मकांड), और दूसरा जो उसका परम लक्ष्य है भक्ति के माध्यम से मोक्ष। सोमयज्ञ जैसे कर्मकांड साधना का प्रारंभिक चरण हो सकते हैं, जो मन को एकाग्र करने में सहायक हैं, पर अनन्य भक्ति वह परम अवस्था है जहाँ साधक साधनाओं को भी पार कर जाता है।  


सादर,  

केशव राम सिंघल 



Tuesday, April 8, 2025

#093 - गीता अध्ययन एक प्रयास

गीता अध्ययन एक प्रयास 

जय श्रीकृष्ण

गीता अध्याय 9 - ज्ञान विज्ञान 


9 / 20 

त्रैविद्या मां सोमपाः पूतपापा यज्ञैरिष्ट्वा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते। 

ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोक मश्नन्ति दिव्यान्दिवि देवभोगान्। 


9 / 21 

ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं क्षीणे पुण्य मर्त्यलोकं विशन्ति। 

एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना गतागतं कामकामा लभन्ते।। 


9 / 22 

अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते। 

तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्।। 


9 / 23 

येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विताः। 

तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम्।। 


9 / 24 

अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च। 

न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्च्यवन्ति ते।। 


भावार्थ 


भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं - 


तीनों वेदों के जानने वाले, सोमरस का उपयोग कर पाप नहीं करने वाले व्यक्ति सोमयज्ञ द्वारा मेरा पूजन करते हैं। वे पवित्र देवलोक को पाते हैं और स्वर्ग के दिव्य भोगों का आनंद लेते हैं। 


त्रैविद्या = तीन वेद = ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद 

सोमपाः = सोम यज्ञ करने वाले 


स्वर्गलोक के दिव्य भोगो (पुण्यों)को भोगकर ऐसी जीवात्माएँ पुण्यों के ख़त्म होने पर पुनः मृत्युलोक (पृथ्वी) पर आ जाते हैं। इस प्रकार तीनों वेदों (ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद) में वर्णित सकाम धर्म का पालन कर भोग की कामना करने वाली जीवात्माएँ आवागमन करती रहती हैं अर्थात् जीवन-मृत्यु के बंधन चक्र में रहती हैं। 


जो अनन्यभाव (विशिष्ट भाव) से मेरा (भगवान् का) चिंतन करते हुए मेरी (भगवान् की) आराधना करते हैं , ऐसे सदा लगे भक्तों की आवश्यकताओं और सुरक्षा को मैं देखता हूँ अर्थात् भगवान् देखते हैं।  


हे कुन्तीपुत्र (अर्जुन), जो भी व्यक्ति श्रद्धा के साथ अन्य देवताओं की आराधना करते हैं, वे भी मेरी (भगवान् की) आराधना करते हैं, पर ऐसे व्यक्ति देवताओं को मुझसे अलग मानते हैं। मैं ही निश्चित तौर पर सभी यज्ञों का भोक्ता और स्वामी हूँ, पर जो मेरे वास्तविक तत्व (गुण) को नहीं जानते, उनका पतन होता है। 


प्रसंगवश 


सोमयज्ञ के निम्न उद्देश्य बताए गए हैं - 


(1) देवताओं को प्रसन्न करना 

(2) अपने पापों से मुक्त होना 

(3) स्वर्गप्राप्ति की कामना करना 

(4) समाज में शान्ति और समृद्धि की कामना करना 


ऋग्वेद में सोम पौधे का वर्णन है, जिसमें सोम पौधे के गुणों और उपयोग के बारे में बताया गया है। सोमयज्ञ में सोम पौधे के रस को अग्नि में अर्पित किया जाता है। वर्तमान समय में सोमयज्ञ का अभ्यास बहुत कम हो गया है। आजकल सोम पौधे की उपलब्धता के बारे में जानकारी नहीं मिल पाती है। 


उपर्युक्त श्लोकों का सार यह है कि भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को कर्मकांड और भक्ति के बीच अंतर समझा रहे हैं। श्लोक 20-21 में वे बताते हैं कि वेदों में वर्णित सकाम कर्म (जैसे सोमयज्ञ) करने वाले लोग स्वर्गलोक के सुख भोगते हैं, परंतु पुण्य समाप्त होने पर वे पुनः मृत्युलोक में लौट आते हैं। वहीं, श्लोक 22 में अनन्य भक्ति का महत्व बताया गया है, जिसमें भगवान स्वयं अपने भक्तों का योग (प्राप्ति) और क्षेम (रक्षा) संभालते हैं। श्लोक 23-24 में यह स्पष्ट किया गया है कि सभी यज्ञ और पूजा अंततः भगवान तक पहुँचती है, परंतु जो लोग उन्हें तत्त्वतः नहीं जानते, वे इस चक्र से मुक्त नहीं हो पाते अर्थात जीवन-मृत्यु के बंधन चक्र में रहते हैं। 


इन श्लोकों में भगवान श्रीकृष्ण सकाम कर्म (फल की कामना से युक्त कर्म) और निष्काम भक्ति (अनन्य भक्ति) के बीच अंतर को रेखांकित कर रहे हैं। श्लोक 20-21 में सोमयज्ञ जैसे वैदिक कर्मकांडों का वर्णन है, जो स्वर्गलोक जैसे अस्थायी फल प्रदान करते हैं। यहाँ यह संदेश है कि भौतिक या स्वर्गीय सुखों की प्राप्ति के लिए किए गए कर्म जीव को जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त नहीं कर सकते। दूसरी ओर, श्लोक 22 में अनन्य भक्ति की महत्ता को दर्शाया गया है, जहाँ भगवान स्वयं भक्त की हर चिंता का भार उठाते हैं। यह निष्काम भक्ति का वह मार्ग है जो मोक्ष की ओर ले जाता है।


श्लोक 23-24 में श्रीकृष्ण एक और गहन सत्य उजागर करते हैं कि सभी पूजा-अर्चना, चाहे वह अन्य देवताओं के लिए ही क्यों न हो, अंततः उसी परमेश्वर तक पहुँचती है। परंतु अज्ञानवश लोग उन्हें सर्वोच्च तत्त्व के रूप में नहीं पहचानते, जिसके कारण वे संसार के बंधनों में फँसे रहते हैं। यह एकेश्वरवाद और सर्वव्यापी भगवद्-तत्त्व का सुंदर प्रतिपादन है।


सादर, 

केशव राम सिंघल 


प्रतीकात्मक चित्र - साभार NightCafe 



Sunday, March 30, 2025

#092 - गीता अध्ययन एक प्रयास

गीता अध्ययन एक प्रयास 

 

जय श्रीकृष्ण

 

गीता अध्याय 9 - ज्ञान विज्ञान

 

9/16

अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वधाहमहमौषधम्।

मन्त्रोअहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हुतम्।। 

 

9/17 

पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामहः।

वेद्यं पवित्रमोङ्कार ऋक्साम यजुरेव च।।

 

9/18

गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत्।

प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम्।। 

 

9/19

तपाम्यहमहं वर्षं निगृह्णाम्युत्सृजामि च।

अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन।।

 

भावार्थ

 

भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं -

 

मैं वैदिक अनुष्ठान हूँ, मैं ही यज्ञ, तर्पण, औषधि, मन्त्र, घी, अग्नि और हवन आहुति हूँ।  मैं इस जगत (ब्रह्माण्ड) का पिता, माता, पालनकर्ता, पितामह हूँ। मैं जान्ने योग्य पवित्र ओङ्कार हूँ। मैं ही ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद हूँ। मैं लक्ष्य (गंतव्य), पालनकर्ता, ईश्वर, गवाह, निवास, शरण, तुम्हारा प्रिय मित्र हूँ। मैं ही सृष्टि, प्रलय, स्थान, आश्रय और अविनाशी बीज (कारण) हूँ। हे अर्जुन ! मैं ही सूर्य के रूप में तपता हूँ, मैं ही जल को ग्रहण करता हूँ और फिर उसी जल को वर्षा रूप में बरसा देता हूँ। जीवन और मृत्यु तथा सत् और असत् भी मैं ही हूँ।

 

प्रसंगवश

 

ये श्लोक भगवान की सर्वव्यापकता, सर्वशक्तिमत्ता और इस सृष्टि के मूल कारण होने की महिमा को दर्शाते हैं। भगवान श्रीकृष्ण यहाँ अर्जुन को समझाते हैं कि वे ही इस विश्व के प्रत्येक तत्व में विद्यमान हैंचाहे वह यज्ञ हो, मंत्र हो, अग्नि हो, या फिर यह संपूर्ण सृष्टि। वे न केवल सृष्टिकर्ता हैं, बल्कि पालनकर्ता और संहारकर्ता भी हैं।

 

भगवान् ही इस संसार को बनाने वाले, चलाने वाले और उसे लीन करने वाले हैं। वे ही सब कुछ हूँ। हम उनकी कृपा पर आश्रित हैं। जिस प्रकार बीज से पुष्प उत्पन्न होता है, उसी प्रकार भगवान् अविनाशी बीज हैं, जिससे यह मायारुपी संसार रचता है। वे अनादि हैं, ना जन्म लेने वाले और न ही समाप्त होने वाले। हमें समझना चाहिए कि सभी कुछ भगवान् के कारण है। यह विचार हमें जीवन के परे उस शाश्वत सत्य की ओर ले जाता है। भगवान् पदार्थ भी हैं और आत्मा भी हैं। सृष्टि से पहले भी भगवान् थे और सृष्टि के समाप्त होने के बाद भी भगवान् ही रहेंगे।  सत् (परा प्रकृति) भी भगवान् स्वरूप है और असत् (अपरा प्रकृति) भी भगवान् का ही स्वरूप है। शरीर असत् है और शरीर में बैठी आत्मा सत् है।

 

सत् = परा प्रकृति = अपरिवर्तनशील

असत् = अपरा प्रकृति = परिवर्तनशील

 

सादर,

केशव राम सिंघल 














Wednesday, March 26, 2025

#091 - गीता अध्ययन एक प्रयास

गीता अध्ययन एक प्रयास  

ॐ 
जय श्रीकृष्ण 

गीता अध्याय 9 - ज्ञान विज्ञान 

9/11  
अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम्। 
परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्।। 

9/12   
मोघाशा मोघकर्माणो मोघज्ञाना विचेतसः। 
राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं मोहिनीं श्रिता।। 

9/13 
महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिताः। 
भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम्।। 

9/14 
सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढ़व्रताः। 
 नमस्थन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते।। 

9/15  
ज्ञानयज्ञेन चाप्यन्ये यजन्तो मामुपासते। 
एकत्वेन पृथक्त्वेन बहुधा विश्वतोमुखम्।। 

भावार्थ 

भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं - 

कुछ लोग मूर्ख हैं जो मेरे ईश्वररूप के श्रेष्ठ भाव को नहीं जानते हैं और मुझे साधारण मनुष्य मानते हुए मेरी बात नहीं मानते हैं। ऐसे अविवेकी व्यक्ति आसुरी, राक्षसी और मोहिनी स्वभाव का आश्रय लेते हैं, उनकी सभी आशाएँ, कर्म और ज्ञान (समझ) व्यर्थ होते हैं, उन्हें सत्-फल नहीं मिल पाता है। हे पार्थ (अर्जुन) ! दैवी प्रकृति के आश्रित अन्यन्य मन वाले व्यक्ति मुझे सभी प्राणियों का आदि मानते हैं तथा अविनाशी समझ कर भक्तिभाव से मेरी पूजा करते हैं। मुझ में लगा व्यक्ति हमेशा दृढ़ और लगन के साथ प्रेमपूर्वक मेरा भजन (कीर्तन) करते हुए मुझे नमस्कार करते हैं और इस प्रकार मेरी लगातार उपासना करते हैं। कई साधक (व्यक्ति) ज्ञान यज्ञ द्वारा एक-भाव से मेरी पूजन करते हुए मेरी उपासना करते हैं और अन्य कई साधक (व्यक्ति) अपने को अलग मानते हुए मेरे विराटरुप का अनेक तरीकों से पूजन करते हैं। 

उपर्युक्त श्लोक भक्ति, ज्ञान, और ईश्वर के स्वरूप को समझने के महत्व पर प्रकाश डालते हैं। श्रीकृष्ण यहाँ स्पष्ट करते हैं कि जो लोग उन्हें केवल मानवीय रूप में देखते हैं और उनके परम दिव्य स्वरूप को नहीं समझते, वे मूर्ख हैं और आसुरी प्रकृति के प्रभाव में रहते हैं। दूसरी ओर, महात्मा और भक्तजन दैवी प्रकृति के आश्रय से एकनिष्ठ भाव से उनकी उपासना करते हैं, चाहे वह ज्ञानयज्ञ के माध्यम से हो या विभिन्न रूपों में उनके विराट स्वरूप की पूजा के द्वारा।

आदि = स्रोत, उत्पन्न करने वाला, पालने वाला 
अन्यन्य मन वाला = जिसके मन में भगवान् में अपनापन लगता है 

प्रसंगवश 

भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन को यह संकेत देते हैं कि व्यक्ति को आसुरी, राक्षसी और मोहिनी स्वभाव का त्याग करना चाहिए। यह संकेत भी बहुत सटीक है - कि मनुष्य को आसुरी, राक्षसी और मोहिनी स्वभाव का त्याग कर दैवी गुणों को अपनाना चाहिए। यह संदेश आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना महाभारत काल में था।

सादर, 
केशव राम सिंघल 




Tuesday, March 25, 2025

#090 - गीता अध्ययन एक प्रयास

गीता अध्ययन एक प्रयास 

ॐ 

जय श्रीकृष्ण 


गीता अध्याय 9 - ज्ञान विज्ञान 


9/6  

यथाकाशस्थितो नित्यं वायुः सर्वत्रगो महान्। 

तथा सर्वाणि भूतानि मत्स्थानीत्युपधारय।। 


9/7 

सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकाम्। 

कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पदौ विसृजाम्यहम्।। 


9/8 

प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुनः पुनः। 

भूतग्राममिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात्।। 


9/9 

न च मां तानि कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय। 

उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु।। 


9/10 

मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम्।

हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते।। 


भावार्थ 


भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं - 


जिस प्रकार सभी ओर बहाने वाली तेज हवा हर समय आकाश में स्थित रहती है, उसी प्रकार सभी प्राणी मुझ (ईश्वर) में स्थित रहते हैं, ऐसा मान लो। ईश्वर सर्वव्यापी हैं, और सभी प्राणी उनके अंश हैं। ईश्वर ही सभी प्राणियों का आधार हैं। हे कौन्तेय (अर्थात् कुंती के पुत्र अर्जुन!) कल्प के नष्ट होने पर अर्थात् महाप्रलय के समय सभी प्राणी मेरी प्रकृति में लीन हो जाते हैं और कल्प आदि में अर्थात् महासर्ग के समय मैं (ईश्वर) उनकी अर्थात् सभी प्राणियों की रचना करता हूँ। ये सभी प्राणी प्रकृति के वश में अधीन रहते हैं और मैं प्रकृति को अपने वश में कर बार-बार रचना करता हूँ। हे धनंजय (अर्जुन) ! उन कर्मों अर्थात् सृष्टि रचना में मैं (ईश्वर) अनासक्त और उदासीन रहता हूँ अतः सृष्टि रचना के वे कर्म मुझे बाँधते नहीं हैं। कर्म मुझे बंधन में नहीं डालते, क्योंकि मैं अनासक्त हूँ। प्रकृति मेरी (ईश्वर की) देखरेख में सम्पूर्ण जगत की रचना करती है। हे कौन्तेय (अर्थात् कुंती के पुत्र अर्जुन!) इसी वजह से इस संसार में परिवर्तन होता है। 


कल्प का अंत = महाप्रलय  

कल्प का प्रारंभ = महासर्ग 


प्रसंगवश 


हम सृष्टि का वर्त्तमान स्वरूप (स्थिति) देखते हैं, पर हमें समझना चाहिए कि सृष्टि की उत्पत्ति और प्रलय होता है अर्थात् सृष्टि की रचना होती है और समय आने पर उसका नाश भी होता है। विशेष रूप से हमें यह समझना चाहिए कि ईश्वर प्रकृति के माध्यम से सृष्टि की रचना करते हैं, परंतु स्वयं उसमें अनासक्त और उदासीन रहते हैं। यह भगवान श्रीकृष्ण के परम तत्व की सर्वोच्चता और उनकी लीला को दर्शाता है। हमें यह सिखाता है कि परिवर्तन प्रकृति का नियम है और हमें भी अनासक्ति के साथ जीवन जीना चाहिए। ईश्वर सृष्टिकर्ता होते हुए भी कर्मफल से मुक्त हैं, और हमें भी निष्काम कर्म की ओर प्रेरित करते हैं।


सादर,

केशव राम सिंघल