गीता अध्ययन एक प्रयास
ॐ
जय श्रीकृष्ण
गीता अध्याय 9 - ज्ञान विज्ञान
प्रसंगवश - सोमयज्ञ और अनन्य भक्ति
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क्या कर्मकांड (सकाम कर्म) और भक्ति हमें एक ही लक्ष्य तक ले जाते हैं? आइए गीता के प्रकाश में देखें।
सोमयज्ञ
सोमयज्ञ वेदों में वर्णित सकाम कर्म (फल की कामना से युक्त कर्म) है। गीता में भगवान् कृष्ण कहते हैं कि सोमयज्ञ करने वाले व्यक्ति पवित्र देवलोक को पाते हैं और स्वर्ग के दिव्य भोगों का आनंद लेते हैं। सोमयज्ञ में सोम पौधे के रस को अग्नि में अर्पित किया जाता है। वर्तमान समय में सोमयज्ञ का अभ्यास बहुत कम हो गया है। जिस सोम रस का प्रसंग गीता में दिया गया है, कहा जाता है कि वह सोमवल्ली लता या सोमवृक्ष के पत्ते का रस होता है। यह भी कहा जाता है कि सोमवल्ली या सोमवृक्ष के पत्ते का रस निकाला जाए तो वह बहुत श्रेष्ठ होता है। रसेन्द्रचूड़ामणि में एक श्लोक है - "इयं सोमकला नाम वल्ली परमदुर्लभा। अनया बद्धसूतेन्द्रो लक्षवेधी प्रजायते।।" सोमवल्ली लता या सोमवृक्ष आज के समय में अत्यंत दुर्लभ है। अतः सोमयज्ञ करना दुर्लभ है, फिर भी सोमयज्ञ का दार्शनिक पहलू यह हो सकता है कि हम अपने कर्म और विचारों को शुद्ध कर भगवान् की आराधना के साथ जीवन में अच्छे कर्म करें। यह एक विचारणीय बिंदु है कि वैदिक काल में सोमरस को न केवल भौतिक रूप से, बल्कि प्रतीकात्मक रूप से भी आत्मा के अमृत या शुद्धिकरण के साधन के रूप में देखा जाता था। यह कथन कि "हम अपने कर्म और विचारों को शुद्ध कर भगवान की आराधना के साथ जीद्धिवन में अच्छे कर्म करें" सोमयज्ञ के मूल उद्देश्य—आत्म-शुद्धि और समर्पण—को आधुनिक संदर्भ में जीवंत करता है। यहाँ यह ध्यान रखने वाली बात है कि "मुँह में राम और बगल में छुरी" नहीं होना चाहिए। यह सोमयज्ञ जैसे कर्मकांडों के बाह्य प्रदर्शन से परे हृदय की शुद्धता और कर्म की सात्विकता की ओर इशारा करता है। आज के समय में, जब सोमयज्ञ जैसे कर्मकांड संभव नहीं हैं, तो इसे हम ध्यान, सेवा, और सत्यनिष्ठा जैसे आंतरिक यज्ञों से जोड़ सकते हैं। उदाहरण —जैसे, दूसरों की निःस्वार्थ सेवा को एक "सोमयज्ञ" मानना, जहाँ हम अपनी ऊर्जा को समाज के कल्याण में अर्पित करते हैं। विद्वानों में सोमवल्ली लता या सोमवृक्ष की पहचान को लेकर मतभेद हैं। कुछ इसे *Ephedra sinica* (एक उत्तेजक पौधा) मानते हैं, जो मध्य एशिया में पाया जाता था। अन्य इसे *Sarcostemma acidum* या *Amanita muscaria* (एक प्रकार का मशरूम) से जोड़ते हैं। ऋग्वेद में इसके गुणों का वर्णन है—यह सुगंधित, तीक्ष्ण स्वाद वाला, और शारीरिक-मानसिक शक्ति बढ़ाने वाला बताया गया है।
सोमयज्ञ को केवल भौतिक कर्मकांड तक सीमित नहीं देखा जाना चाहिए। इसको हम एक प्रतीकात्मक प्रक्रिया भी मान सकते हैं। सोमयज्ञ आत्मशुद्धि का प्रतीक हो सकता है। सोमरस को सोमवल्ली या सोमवृक्ष के पत्तों से निचोड़ना, शुद्ध करना और अग्नि में अर्पित करना आत्मा के शुद्धिकरण की प्रक्रिया को दर्शाता है। जैसे सोम को पवित्र किया जाता है, वैसे ही हम मन को संयम और भक्ति से शुद्ध कर सकते हैं। सोमयज्ञ को हम समर्पण का प्रतीक मान सकते हैं। जिस प्रकार सोमरस को अग्नि में अर्पित करना पूर्ण समर्पण का संकेत है। यह प्रक्रिया मन के विकारों को "निचोड़कर" (संयम से) और उन्हें ईश्वर को अर्पित करने (अहंकार का त्याग) की ओर संकेत करती है। यह हमें सिखाता है कि अपने श्रेष्ठ गुणों को परमात्मा को समर्पित करने से ही सच्चा फल मिलता है। सोमयज्ञ को अमृतत्व की खोज का एक साधन माना जाता रहा और सोम रस को "अमृत" कहा गया। दार्शनिक रूप से, सोमयज्ञ उस आंतरिक आनंद या चेतना की ओर इशारा करता है जो जन्म-मृत्यु के चक्र से परे है। गीता में श्रीकृष्ण इसी ओर संकेत करते हैं कि सकाम कर्म (जैसे सोमयज्ञ) अस्थायी फल देते हैं, जबकि निष्काम भक्ति स्थायी मुक्ति देती है।
सोमयज्ञ वैदिक परंपरा का एक प्रमुख कर्मकांड है, जिसका उल्लेख ऋग्वेद में सर्वाधिक बार मिलता है। ऋग्वेद के नवम मंडल में 114 सूक्त सोम को समर्पित हैं, जिनमें सोम को देवता, औषधि, और अमृत के रूप में वर्णित किया गया है। सोमयज्ञ में सोम पौधे के रस को निचोड़कर, उसे शुद्ध करने के बाद अग्नि में अर्पित किया जाता था। यह यज्ञ मुख्य रूप से इंद्र, अग्नि और अन्य देवताओं को प्रसन्न करने के लिए किया जाता था। सोम यज्ञ के चार उद्देश्य (देवताओं को प्रसन्न करना, पापमुक्ति, स्वर्गप्राप्ति, और सामाजिक शांति) वास्तव में इसके बाह्य लक्ष्य हैं, आंतरिक रूप से, सोम यज्ञ मन की शुद्धि और आत्मा को उच्च लोकों से जोड़ने का माध्यम था।
वर्तमान समय में सोमयज्ञ का अभ्यास भले ही कम हो गया हो, पर इसका दर्शन जीवंत है। इसे हम निम्न रूप में देख सकते हैं -
(1) सोमरस की जगह आज हम मंत्र और ध्यान के द्वारा मन को शुद्ध करने का प्रयास कर सकते हैं ।
(2) सेवा और अच्छे कर्मों को समाज और ईश्वर के लिए समर्पित करना एक प्रकार का आधुनिक "यज्ञ" है।
अनन्य भक्ति
गीता श्लोक 9/22—"अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते। तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्"— में अनन्य भक्ति का सार दिया गया है। यहाँ "अनन्य" का अर्थ है "बिना किसी अन्य के प्रति आसक्ति" और "चिन्तयन्तो मां" का अर्थ है "केवल मुझ पर मन को केंद्रित करना।" श्रीकृष्ण कहते हैं कि ऐसे भक्तों की हर चिंता (योग: जो अभी नहीं है उसे प्राप्त करना; क्षेम: जो प्राप्त है उसे सुरक्षित रखना) वे (भगवान्) स्वयं संभालते हैं। अनन्य भक्ति का अर्थ है कि भक्त का मन केवल भगवान पर ही केंद्रित हो, और वह किसी अन्य चीज में नहीं भटके। मन का केवल भगवान पर केंद्रित होना "अनन्याश्चिन्तयन्तो मां" के भाव को पूरी तरह प्रतिबिंबित करता है। यह एकाग्रता पूजा-पाठ तक सीमित नहीं रहती, बल्कि जीवन के हर क्षण में भगवान के प्रति समर्पण और विश्वास को दर्शाती है। उदाहरण के लिए, यह कर्म में निष्कामता, विचारों में पवित्रता, और व्यवहार में करुणा के रूप में प्रकट हो सकती है।
अनन्य भक्ति के लक्षण
(1) भगवान् के प्रति कनिष्ठता - भक्त का मन भगवान के अतिरिक्त कहीं और नहीं भटकना चाहिए। उसी प्रकार जैसे हनुमान ने भगवान् राम के प्रति पूर्ण निष्ठा दिखाई।
(2) निष्कामता - भक्ति फल की कामना से मुक्त होनी चाहिए। भक्त केवल भगवान के प्रेम और कृपा का आकांक्षी होता है, न कि सांसारिक लाभ का। रोज़मर्रा के जीवन में निष्कामता के लिए उदाहरण —जैसे, कठिन परिस्थितियों में शांति बनाए रखना या दूसरों के प्रति क्रोध के बजाय क्षमा का भाव रखना।
(3) नित्य संयोग - भक्त हर पल भगवान से जुड़ा रहना चाहिए, चाहे वह कार्य करता हो, सोचता हो, या विश्राम करता हो।
अनन्य भक्ति आत्मा का परमात्मा में विलय है। जैसे नदी सागर में मिलकर अपनी अलग पहचान खो देती है, वैसे ही भक्त भगवान में लीन हो जाता है। गीता में अनन्य भक्ति की सीख बार-बार आती है (जैसे 18/66 में "सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज") कि अनन्य भक्ति ही अंतिम मुक्ति का साधन है।
अनन्य भक्ति केवल मंदिर में मूर्ति के सामने बैठना नहीं है। यह जीवन का एक दृष्टिकोण है। जैसे अपने हर कार्य को भगवान को अर्पित करना, जैसे अर्जुन ने युद्ध को भगवान् श्रीकृष्ण की इच्छा मानकर लड़ा। हर परिस्थिति में भगवान पर भरोसा रखना, जैसे द्रौपदी ने चीरहरण के समय किया। भगवान को मित्र, गुरु, या प्रियतम के रूप में देखना, जैसा कि अर्जुन ने भगवान् श्रीकृष्ण को मित्र और गुरु माना। जैसा कि मीरा ने भगवान् श्रीकृष्ण को प्रियतम के रूप में देखा।
सोमयज्ञ और अनन्य भक्ति
सोमयज्ञ सकाम कर्म का प्रतीक है, जो अस्थायी फल देता है। अनन्य भक्ति निष्कामता का मार्ग है, जो स्थायी शांति और मुक्ति देता है। सोमयज्ञ बाह्य विधि-विधान पर आधारित है, जबकि अनन्य भक्ति हृदय की शुद्धता और समर्पण पर। सोमयज्ञ स्वर्ग जैसे सीमित लोक देता है, पर अनन्य भक्ति भगवान के साथ एकता प्रदान करती है।
सार
सोमयज्ञ से हमें यह शिक्षा मिलती है कि कर्म का महत्व है, पर उसका लक्ष्य शुद्धि और समर्पण होना चाहिए। अनन्य भक्ति हमें यह सिखाती है कि जब यह समर्पण पूर्ण हो जाता है, तो कर्मकांडों की आवश्यकता समाप्त हो जाती है, और भक्त सीधे भगवान के चरणों में पहुँच जाता है।
सोमयज्ञ और अनन्य भक्ति के दोनों पहलू जीवन के दो छोरों को दर्शाते हैं—एक जो साधना की शुरुआत है (कर्मकांड), और दूसरा जो उसका परम लक्ष्य है भक्ति के माध्यम से मोक्ष। सोमयज्ञ जैसे कर्मकांड साधना का प्रारंभिक चरण हो सकते हैं, जो मन को एकाग्र करने में सहायक हैं, पर अनन्य भक्ति वह परम अवस्था है जहाँ साधक साधनाओं को भी पार कर जाता है।
सादर,
केशव राम सिंघल