Tuesday, April 8, 2025

#093 - गीता अध्ययन एक प्रयास

गीता अध्ययन एक प्रयास 

जय श्रीकृष्ण

गीता अध्याय 9 - ज्ञान विज्ञान 


9 / 20 

त्रैविद्या मां सोमपाः पूतपापा यज्ञैरिष्ट्वा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते। 

ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोक मश्नन्ति दिव्यान्दिवि देवभोगान्। 


9 / 21 

ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं क्षीणे पुण्य मर्त्यलोकं विशन्ति। 

एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना गतागतं कामकामा लभन्ते।। 


9 / 22 

अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते। 

तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्।। 


9 / 23 

येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विताः। 

तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम्।। 


9 / 24 

अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च। 

न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्च्यवन्ति ते।। 


भावार्थ 


भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं - 


तीनों वेदों के जानने वाले, सोमरस का उपयोग कर पाप नहीं करने वाले व्यक्ति सोमयज्ञ द्वारा मेरा पूजन करते हैं। वे पवित्र देवलोक को पाते हैं और स्वर्ग के दिव्य भोगों का आनंद लेते हैं। 


त्रैविद्या = तीन वेद = ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद 

सोमपाः = सोम यज्ञ करने वाले 


स्वर्गलोक के दिव्य भोगो (पुण्यों)को भोगकर ऐसी जीवात्माएँ पुण्यों के ख़त्म होने पर पुनः मृत्युलोक (पृथ्वी) पर आ जाते हैं। इस प्रकार तीनों वेदों (ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद) में वर्णित सकाम धर्म का पालन कर भोग की कामना करने वाली जीवात्माएँ आवागमन करती रहती हैं अर्थात् जीवन-मृत्यु के बंधन चक्र में रहती हैं। 


जो अनन्यभाव (विशिष्ट भाव) से मेरा (भगवान् का) चिंतन करते हुए मेरी (भगवान् की) आराधना करते हैं , ऐसे सदा लगे भक्तों की आवश्यकताओं और सुरक्षा को मैं देखता हूँ अर्थात् भगवान् देखते हैं।  


हे कुन्तीपुत्र (अर्जुन), जो भी व्यक्ति श्रद्धा के साथ अन्य देवताओं की आराधना करते हैं, वे भी मेरी (भगवान् की) आराधना करते हैं, पर ऐसे व्यक्ति देवताओं को मुझसे अलग मानते हैं। मैं ही निश्चित तौर पर सभी यज्ञों का भोक्ता और स्वामी हूँ, पर जो मेरे वास्तविक तत्व (गुण) को नहीं जानते, उनका पतन होता है। 


प्रसंगवश 


सोमयज्ञ के निम्न उद्देश्य बताए गए हैं - 


(1) देवताओं को प्रसन्न करना 

(2) अपने पापों से मुक्त होना 

(3) स्वर्गप्राप्ति की कामना करना 

(4) समाज में शान्ति और समृद्धि की कामना करना 


ऋग्वेद में सोम पौधे का वर्णन है, जिसमें सोम पौधे के गुणों और उपयोग के बारे में बताया गया है। सोमयज्ञ में सोम पौधे के रस को अग्नि में अर्पित किया जाता है। वर्तमान समय में सोमयज्ञ का अभ्यास बहुत कम हो गया है। आजकल सोम पौधे की उपलब्धता के बारे में जानकारी नहीं मिल पाती है। 


उपर्युक्त श्लोकों का सार यह है कि भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को कर्मकांड और भक्ति के बीच अंतर समझा रहे हैं। श्लोक 20-21 में वे बताते हैं कि वेदों में वर्णित सकाम कर्म (जैसे सोमयज्ञ) करने वाले लोग स्वर्गलोक के सुख भोगते हैं, परंतु पुण्य समाप्त होने पर वे पुनः मृत्युलोक में लौट आते हैं। वहीं, श्लोक 22 में अनन्य भक्ति का महत्व बताया गया है, जिसमें भगवान स्वयं अपने भक्तों का योग (प्राप्ति) और क्षेम (रक्षा) संभालते हैं। श्लोक 23-24 में यह स्पष्ट किया गया है कि सभी यज्ञ और पूजा अंततः भगवान तक पहुँचती है, परंतु जो लोग उन्हें तत्त्वतः नहीं जानते, वे इस चक्र से मुक्त नहीं हो पाते अर्थात जीवन-मृत्यु के बंधन चक्र में रहते हैं। 


इन श्लोकों में भगवान श्रीकृष्ण सकाम कर्म (फल की कामना से युक्त कर्म) और निष्काम भक्ति (अनन्य भक्ति) के बीच अंतर को रेखांकित कर रहे हैं। श्लोक 20-21 में सोमयज्ञ जैसे वैदिक कर्मकांडों का वर्णन है, जो स्वर्गलोक जैसे अस्थायी फल प्रदान करते हैं। यहाँ यह संदेश है कि भौतिक या स्वर्गीय सुखों की प्राप्ति के लिए किए गए कर्म जीव को जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त नहीं कर सकते। दूसरी ओर, श्लोक 22 में अनन्य भक्ति की महत्ता को दर्शाया गया है, जहाँ भगवान स्वयं भक्त की हर चिंता का भार उठाते हैं। यह निष्काम भक्ति का वह मार्ग है जो मोक्ष की ओर ले जाता है।


श्लोक 23-24 में श्रीकृष्ण एक और गहन सत्य उजागर करते हैं कि सभी पूजा-अर्चना, चाहे वह अन्य देवताओं के लिए ही क्यों न हो, अंततः उसी परमेश्वर तक पहुँचती है। परंतु अज्ञानवश लोग उन्हें सर्वोच्च तत्त्व के रूप में नहीं पहचानते, जिसके कारण वे संसार के बंधनों में फँसे रहते हैं। यह एकेश्वरवाद और सर्वव्यापी भगवद्-तत्त्व का सुंदर प्रतिपादन है।


सादर, 

केशव राम सिंघल 


प्रतीकात्मक चित्र - साभार NightCafe 



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