Tuesday, March 25, 2025

#090 - गीता अध्ययन एक प्रयास

गीता अध्ययन एक प्रयास 

ॐ 

जय श्रीकृष्ण 


गीता अध्याय 9 - ज्ञान विज्ञान 


9/6  

यथाकाशस्थितो नित्यं वायुः सर्वत्रगो महान्। 

तथा सर्वाणि भूतानि मत्स्थानीत्युपधारय।। 


9/7 

सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकाम्। 

कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पदौ विसृजाम्यहम्।। 


9/8 

प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुनः पुनः। 

भूतग्राममिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात्।। 


9/9 

न च मां तानि कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय। 

उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु।। 


9/10 

मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम्।

हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते।। 


भावार्थ 


भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं - 


जिस प्रकार सभी ओर बहाने वाली तेज हवा हर समय आकाश में स्थित रहती है, उसी प्रकार सभी प्राणी मुझ (ईश्वर) में स्थित रहते हैं, ऐसा मान लो। ईश्वर सर्वव्यापी हैं, और सभी प्राणी उनके अंश हैं। ईश्वर ही सभी प्राणियों का आधार हैं। हे कौन्तेय (अर्थात् कुंती के पुत्र अर्जुन!) कल्प के नष्ट होने पर अर्थात् महाप्रलय के समय सभी प्राणी मेरी प्रकृति में लीन हो जाते हैं और कल्प आदि में अर्थात् महासर्ग के समय मैं (ईश्वर) उनकी अर्थात् सभी प्राणियों की रचना करता हूँ। ये सभी प्राणी प्रकृति के वश में अधीन रहते हैं और मैं प्रकृति को अपने वश में कर बार-बार रचना करता हूँ। हे धनंजय (अर्जुन) ! उन कर्मों अर्थात् सृष्टि रचना में मैं (ईश्वर) अनासक्त और उदासीन रहता हूँ अतः सृष्टि रचना के वे कर्म मुझे बाँधते नहीं हैं। कर्म मुझे बंधन में नहीं डालते, क्योंकि मैं अनासक्त हूँ। प्रकृति मेरी (ईश्वर की) देखरेख में सम्पूर्ण जगत की रचना करती है। हे कौन्तेय (अर्थात् कुंती के पुत्र अर्जुन!) इसी वजह से इस संसार में परिवर्तन होता है। 


कल्प का अंत = महाप्रलय  

कल्प का प्रारंभ = महासर्ग 


प्रसंगवश 


हम सृष्टि का वर्त्तमान स्वरूप (स्थिति) देखते हैं, पर हमें समझना चाहिए कि सृष्टि की उत्पत्ति और प्रलय होता है अर्थात् सृष्टि की रचना होती है और समय आने पर उसका नाश भी होता है। विशेष रूप से हमें यह समझना चाहिए कि ईश्वर प्रकृति के माध्यम से सृष्टि की रचना करते हैं, परंतु स्वयं उसमें अनासक्त और उदासीन रहते हैं। यह भगवान श्रीकृष्ण के परम तत्व की सर्वोच्चता और उनकी लीला को दर्शाता है। हमें यह सिखाता है कि परिवर्तन प्रकृति का नियम है और हमें भी अनासक्ति के साथ जीवन जीना चाहिए। ईश्वर सृष्टिकर्ता होते हुए भी कर्मफल से मुक्त हैं, और हमें भी निष्काम कर्म की ओर प्रेरित करते हैं।


सादर,

केशव राम सिंघल 



 

  


 

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