Wednesday, March 26, 2025

#091 - गीता अध्ययन एक प्रयास

गीता अध्ययन एक प्रयास  

ॐ 
जय श्रीकृष्ण 

गीता अध्याय 9 - ज्ञान विज्ञान 

9/11  
अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम्। 
परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्।। 

9/12   
मोघाशा मोघकर्माणो मोघज्ञाना विचेतसः। 
राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं मोहिनीं श्रिता।। 

9/13 
महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिताः। 
भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम्।। 

9/14 
सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढ़व्रताः। 
 नमस्थन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते।। 

9/15  
ज्ञानयज्ञेन चाप्यन्ये यजन्तो मामुपासते। 
एकत्वेन पृथक्त्वेन बहुधा विश्वतोमुखम्।। 

भावार्थ 

भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं - 

कुछ लोग मूर्ख हैं जो मेरे ईश्वररूप के श्रेष्ठ भाव को नहीं जानते हैं और मुझे साधारण मनुष्य मानते हुए मेरी बात नहीं मानते हैं। ऐसे अविवेकी व्यक्ति आसुरी, राक्षसी और मोहिनी स्वभाव का आश्रय लेते हैं, उनकी सभी आशाएँ, कर्म और ज्ञान (समझ) व्यर्थ होते हैं, उन्हें सत्-फल नहीं मिल पाता है। हे पार्थ (अर्जुन) ! दैवी प्रकृति के आश्रित अन्यन्य मन वाले व्यक्ति मुझे सभी प्राणियों का आदि मानते हैं तथा अविनाशी समझ कर भक्तिभाव से मेरी पूजा करते हैं। मुझ में लगा व्यक्ति हमेशा दृढ़ और लगन के साथ प्रेमपूर्वक मेरा भजन (कीर्तन) करते हुए मुझे नमस्कार करते हैं और इस प्रकार मेरी लगातार उपासना करते हैं। कई साधक (व्यक्ति) ज्ञान यज्ञ द्वारा एक-भाव से मेरी पूजन करते हुए मेरी उपासना करते हैं और अन्य कई साधक (व्यक्ति) अपने को अलग मानते हुए मेरे विराटरुप का अनेक तरीकों से पूजन करते हैं। 

उपर्युक्त श्लोक भक्ति, ज्ञान, और ईश्वर के स्वरूप को समझने के महत्व पर प्रकाश डालते हैं। श्रीकृष्ण यहाँ स्पष्ट करते हैं कि जो लोग उन्हें केवल मानवीय रूप में देखते हैं और उनके परम दिव्य स्वरूप को नहीं समझते, वे मूर्ख हैं और आसुरी प्रकृति के प्रभाव में रहते हैं। दूसरी ओर, महात्मा और भक्तजन दैवी प्रकृति के आश्रय से एकनिष्ठ भाव से उनकी उपासना करते हैं, चाहे वह ज्ञानयज्ञ के माध्यम से हो या विभिन्न रूपों में उनके विराट स्वरूप की पूजा के द्वारा।

आदि = स्रोत, उत्पन्न करने वाला, पालने वाला 
अन्यन्य मन वाला = जिसके मन में भगवान् में अपनापन लगता है 

प्रसंगवश 

भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन को यह संकेत देते हैं कि व्यक्ति को आसुरी, राक्षसी और मोहिनी स्वभाव का त्याग करना चाहिए। यह संकेत भी बहुत सटीक है - कि मनुष्य को आसुरी, राक्षसी और मोहिनी स्वभाव का त्याग कर दैवी गुणों को अपनाना चाहिए। यह संदेश आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना महाभारत काल में था।

सादर, 
केशव राम सिंघल 




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