Sunday, March 30, 2025

#092 - गीता अध्ययन एक प्रयास

गीता अध्ययन एक प्रयास 

 

जय श्रीकृष्ण

 

गीता अध्याय 9 - ज्ञान विज्ञान

 

9/16

अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वधाहमहमौषधम्।

मन्त्रोअहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हुतम्।। 

 

9/17 

पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामहः।

वेद्यं पवित्रमोङ्कार ऋक्साम यजुरेव च।।

 

9/18

गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत्।

प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम्।। 

 

9/19

तपाम्यहमहं वर्षं निगृह्णाम्युत्सृजामि च।

अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन।।

 

भावार्थ

 

भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं -

 

मैं वैदिक अनुष्ठान हूँ, मैं ही यज्ञ, तर्पण, औषधि, मन्त्र, घी, अग्नि और हवन आहुति हूँ।  मैं इस जगत (ब्रह्माण्ड) का पिता, माता, पालनकर्ता, पितामह हूँ। मैं जान्ने योग्य पवित्र ओङ्कार हूँ। मैं ही ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद हूँ। मैं लक्ष्य (गंतव्य), पालनकर्ता, ईश्वर, गवाह, निवास, शरण, तुम्हारा प्रिय मित्र हूँ। मैं ही सृष्टि, प्रलय, स्थान, आश्रय और अविनाशी बीज (कारण) हूँ। हे अर्जुन ! मैं ही सूर्य के रूप में तपता हूँ, मैं ही जल को ग्रहण करता हूँ और फिर उसी जल को वर्षा रूप में बरसा देता हूँ। जीवन और मृत्यु तथा सत् और असत् भी मैं ही हूँ।

 

प्रसंगवश

 

ये श्लोक भगवान की सर्वव्यापकता, सर्वशक्तिमत्ता और इस सृष्टि के मूल कारण होने की महिमा को दर्शाते हैं। भगवान श्रीकृष्ण यहाँ अर्जुन को समझाते हैं कि वे ही इस विश्व के प्रत्येक तत्व में विद्यमान हैंचाहे वह यज्ञ हो, मंत्र हो, अग्नि हो, या फिर यह संपूर्ण सृष्टि। वे न केवल सृष्टिकर्ता हैं, बल्कि पालनकर्ता और संहारकर्ता भी हैं।

 

भगवान् ही इस संसार को बनाने वाले, चलाने वाले और उसे लीन करने वाले हैं। वे ही सब कुछ हूँ। हम उनकी कृपा पर आश्रित हैं। जिस प्रकार बीज से पुष्प उत्पन्न होता है, उसी प्रकार भगवान् अविनाशी बीज हैं, जिससे यह मायारुपी संसार रचता है। वे अनादि हैं, ना जन्म लेने वाले और न ही समाप्त होने वाले। हमें समझना चाहिए कि सभी कुछ भगवान् के कारण है। यह विचार हमें जीवन के परे उस शाश्वत सत्य की ओर ले जाता है। भगवान् पदार्थ भी हैं और आत्मा भी हैं। सृष्टि से पहले भी भगवान् थे और सृष्टि के समाप्त होने के बाद भी भगवान् ही रहेंगे।  सत् (परा प्रकृति) भी भगवान् स्वरूप है और असत् (अपरा प्रकृति) भी भगवान् का ही स्वरूप है। शरीर असत् है और शरीर में बैठी आत्मा सत् है।

 

सत् = परा प्रकृति = अपरिवर्तनशील

असत् = अपरा प्रकृति = परिवर्तनशील

 

सादर,

केशव राम सिंघल 














Wednesday, March 26, 2025

#091 - गीता अध्ययन एक प्रयास

गीता अध्ययन एक प्रयास  

ॐ 
जय श्रीकृष्ण 

गीता अध्याय 9 - ज्ञान विज्ञान 

9/11  
अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम्। 
परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्।। 

9/12   
मोघाशा मोघकर्माणो मोघज्ञाना विचेतसः। 
राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं मोहिनीं श्रिता।। 

9/13 
महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिताः। 
भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम्।। 

9/14 
सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढ़व्रताः। 
 नमस्थन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते।। 

9/15  
ज्ञानयज्ञेन चाप्यन्ये यजन्तो मामुपासते। 
एकत्वेन पृथक्त्वेन बहुधा विश्वतोमुखम्।। 

भावार्थ 

भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं - 

कुछ लोग मूर्ख हैं जो मेरे ईश्वररूप के श्रेष्ठ भाव को नहीं जानते हैं और मुझे साधारण मनुष्य मानते हुए मेरी बात नहीं मानते हैं। ऐसे अविवेकी व्यक्ति आसुरी, राक्षसी और मोहिनी स्वभाव का आश्रय लेते हैं, उनकी सभी आशाएँ, कर्म और ज्ञान (समझ) व्यर्थ होते हैं, उन्हें सत्-फल नहीं मिल पाता है। हे पार्थ (अर्जुन) ! दैवी प्रकृति के आश्रित अन्यन्य मन वाले व्यक्ति मुझे सभी प्राणियों का आदि मानते हैं तथा अविनाशी समझ कर भक्तिभाव से मेरी पूजा करते हैं। मुझ में लगा व्यक्ति हमेशा दृढ़ और लगन के साथ प्रेमपूर्वक मेरा भजन (कीर्तन) करते हुए मुझे नमस्कार करते हैं और इस प्रकार मेरी लगातार उपासना करते हैं। कई साधक (व्यक्ति) ज्ञान यज्ञ द्वारा एक-भाव से मेरी पूजन करते हुए मेरी उपासना करते हैं और अन्य कई साधक (व्यक्ति) अपने को अलग मानते हुए मेरे विराटरुप का अनेक तरीकों से पूजन करते हैं। 

उपर्युक्त श्लोक भक्ति, ज्ञान, और ईश्वर के स्वरूप को समझने के महत्व पर प्रकाश डालते हैं। श्रीकृष्ण यहाँ स्पष्ट करते हैं कि जो लोग उन्हें केवल मानवीय रूप में देखते हैं और उनके परम दिव्य स्वरूप को नहीं समझते, वे मूर्ख हैं और आसुरी प्रकृति के प्रभाव में रहते हैं। दूसरी ओर, महात्मा और भक्तजन दैवी प्रकृति के आश्रय से एकनिष्ठ भाव से उनकी उपासना करते हैं, चाहे वह ज्ञानयज्ञ के माध्यम से हो या विभिन्न रूपों में उनके विराट स्वरूप की पूजा के द्वारा।

आदि = स्रोत, उत्पन्न करने वाला, पालने वाला 
अन्यन्य मन वाला = जिसके मन में भगवान् में अपनापन लगता है 

प्रसंगवश 

भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन को यह संकेत देते हैं कि व्यक्ति को आसुरी, राक्षसी और मोहिनी स्वभाव का त्याग करना चाहिए। यह संकेत भी बहुत सटीक है - कि मनुष्य को आसुरी, राक्षसी और मोहिनी स्वभाव का त्याग कर दैवी गुणों को अपनाना चाहिए। यह संदेश आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना महाभारत काल में था।

सादर, 
केशव राम सिंघल 




Tuesday, March 25, 2025

#090 - गीता अध्ययन एक प्रयास

गीता अध्ययन एक प्रयास 

ॐ 

जय श्रीकृष्ण 


गीता अध्याय 9 - ज्ञान विज्ञान 


9/6  

यथाकाशस्थितो नित्यं वायुः सर्वत्रगो महान्। 

तथा सर्वाणि भूतानि मत्स्थानीत्युपधारय।। 


9/7 

सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकाम्। 

कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पदौ विसृजाम्यहम्।। 


9/8 

प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुनः पुनः। 

भूतग्राममिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात्।। 


9/9 

न च मां तानि कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय। 

उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु।। 


9/10 

मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम्।

हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते।। 


भावार्थ 


भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं - 


जिस प्रकार सभी ओर बहाने वाली तेज हवा हर समय आकाश में स्थित रहती है, उसी प्रकार सभी प्राणी मुझ (ईश्वर) में स्थित रहते हैं, ऐसा मान लो। ईश्वर सर्वव्यापी हैं, और सभी प्राणी उनके अंश हैं। ईश्वर ही सभी प्राणियों का आधार हैं। हे कौन्तेय (अर्थात् कुंती के पुत्र अर्जुन!) कल्प के नष्ट होने पर अर्थात् महाप्रलय के समय सभी प्राणी मेरी प्रकृति में लीन हो जाते हैं और कल्प आदि में अर्थात् महासर्ग के समय मैं (ईश्वर) उनकी अर्थात् सभी प्राणियों की रचना करता हूँ। ये सभी प्राणी प्रकृति के वश में अधीन रहते हैं और मैं प्रकृति को अपने वश में कर बार-बार रचना करता हूँ। हे धनंजय (अर्जुन) ! उन कर्मों अर्थात् सृष्टि रचना में मैं (ईश्वर) अनासक्त और उदासीन रहता हूँ अतः सृष्टि रचना के वे कर्म मुझे बाँधते नहीं हैं। कर्म मुझे बंधन में नहीं डालते, क्योंकि मैं अनासक्त हूँ। प्रकृति मेरी (ईश्वर की) देखरेख में सम्पूर्ण जगत की रचना करती है। हे कौन्तेय (अर्थात् कुंती के पुत्र अर्जुन!) इसी वजह से इस संसार में परिवर्तन होता है। 


कल्प का अंत = महाप्रलय  

कल्प का प्रारंभ = महासर्ग 


प्रसंगवश 


हम सृष्टि का वर्त्तमान स्वरूप (स्थिति) देखते हैं, पर हमें समझना चाहिए कि सृष्टि की उत्पत्ति और प्रलय होता है अर्थात् सृष्टि की रचना होती है और समय आने पर उसका नाश भी होता है। विशेष रूप से हमें यह समझना चाहिए कि ईश्वर प्रकृति के माध्यम से सृष्टि की रचना करते हैं, परंतु स्वयं उसमें अनासक्त और उदासीन रहते हैं। यह भगवान श्रीकृष्ण के परम तत्व की सर्वोच्चता और उनकी लीला को दर्शाता है। हमें यह सिखाता है कि परिवर्तन प्रकृति का नियम है और हमें भी अनासक्ति के साथ जीवन जीना चाहिए। ईश्वर सृष्टिकर्ता होते हुए भी कर्मफल से मुक्त हैं, और हमें भी निष्काम कर्म की ओर प्रेरित करते हैं।


सादर,

केशव राम सिंघल