*ॐ*
*जय श्रीकृष्ण*
*गीता अध्याय 8 - अक्षरब्रह्मयोग*
*श्रीभगवानुवाच*
8/3
*अक्षरंब्रह्म परमं स्वभावोअध्यात्ममुच्यते !*
*भूतभावोद्भवकरो विसर्ग कर्मसञ्ज्ञितः !!*
8/4
*अधिभूतं क्षरो भावः पुरूषश्चाधिदैवतम् !*
*अधियज्ञोअहमेवात्र देहे देहभृतां वर !!*
*भावार्थ*
श्रीकृष्ण भगवान अर्जुन से कहते हैं -
परम अक्षर (अविनाशी) ब्रह्म है, परा प्रकृति (अपरिवर्तनशील दिव्य जीव) को अध्यात्म कहते हैं. जीवों के भौतिक रूप से प्रकट (होने वाली) गतिविधि कर्म है. (8/3) हे देहधारियों में श्रेष्ठ (अर्जुन) ! क्षर भाव (नाशवान पदार्थ - यह परिवर्तनशील भौतिक प्रकृति) अधिभूत है. ब्रह्माजी अधिदैव हैं और इस देह (शरीर) में मैं (परमात्मा) ही अधियज्ञ (यज्ञ का स्वामी) हूँ. (8/4)
*प्रसंगवश*
परा प्रकृति भगवान का स्वभाव है. यह अपरिवर्तनशील है. जीव परा प्रकृति है. जीव भगवान् (परमात्मा) का अंश है. जीव सदा विद्यमान रहता है.
सादर,
केशव राम सिंघल
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