*ॐ*
*जय श्रीकृष्ण !*
*गीता अध्याय 5 - कर्म संन्यास योग - श्लोक 1 व 2*
श्रीकृष्ण ने अर्जुन को अब तक (गीता अध्याय 4 तक) जो गीता ज्ञान दिया, उसमें ज्ञानयोग, कर्मयोग, संन्यास आदि की चर्चा करते हुए कल्याण के मार्ग का उपदेश दिया. अब अर्जुन यह जानना चाहता है कि उसके लिए कौन सा मार्ग श्रेष्ठ है.
5/1
*अर्जुन उवाच*
*संन्यास कर्मणां कृष्ण पुनयोगं व शंससि !*
*यच्छेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम् !!*
*भावार्थ*
अर्जुन श्रीकृष्ण से -
हे कृष्ण ! पहले आप कर्मों का त्याग करने और फिर कर्मयोग (निःस्वार्थ कर्म के आचरण) की प्रशंसा करते हैं. इन दोनों में से जो एक निश्चित ही मेरे लिए श्रेयस्कर (कल्याणकारक) हो, वह मुझे कहें.
5/2
*श्रीभगवानुवाच*
*संन्यास: कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ !*
*तयोस्तु कर्मसंन्यासयात् कर्मयोगो विशिष्यते !!*
*भावार्थ*
श्रीभगवान कृष्ण कहते हैं -
संन्यास (कर्मों का त्याग) और कर्मयोग (निःस्वार्थ कर्म का आचरण) दोनों ही कल्याण करने वाले हैं, पर इन दोनों में संन्यास से कर्मयोग श्रेष्ठ है.
*प्रसंगवश*
कोई भी व्यक्ति संन्यास (सांख्य योग) और कर्मयोग का पालन कर सकता है.
संन्यास = सांख्य योग
सांख्य योग की साधना में विवेक विचार की प्रमुखता होती है.
कर्मयोग = कर्तव्य-कर्म करना
कर्मयोग में निष्कामभाव से कर्तव्य-कर्म दूसरों के हित के लिए करना होता है. कोई भी कर्म छोटा या बड़ा नहीं होता. निष्कामभाव से कर्तव्य-कर्म करने से तात्पर्य है कर्मों के बदले अपने लिए कुछ भी पाने की इच्छा न होना. कुछ पाने की इच्छा का अर्थ है कि हम कर्मों से अपना सम्बन्ध-विच्छेद नहीं कर पाए हैं और यही कल्याण करे मार्ग में सबसे बड़ी बढ़ा है.
*संन्यास (सांख्य योग) और कर्मयोग*
कर्मयोग के बिना संन्यास (सांख्य योग) का साधन होना कठिन है. कर्म करने का राग कर्म करने से मिटता है. सांख्य योग में तो कर्मयोग की आवश्यकता है, पर कर्मयोग में सांख्य योग की आवश्यकता नहीं है.
कर्मयोगी निःस्वार्थभाव से दूसरों के हित के लिए कर्म करता है, अतः वह कर्मबन्धन से सुगमतापूर्वक मुक्त हो जाता है.
सांख्य योगी कर्म का त्याग करके संसार से मुक्त होता है और कर्मयोगी कुछ पाने की इच्छा का त्याग करके मुक्त होता है.
सादर,
केशव राम सिंघल
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