*ॐ*
*जय श्रीकृष्ण !*
*गीता अध्याय 4 - श्लोक 39 से 42*
4/39
*श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्पर: संयतेन्द्रियः !*
*ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति !!*
4/40
*अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति !*
*नायं लोकोअस्ति न पारो न सुखं संशयात्मनः !!*
4/41
*योगसंन्यस्तकर्माणं ज्ञानसज्छिन्नसंशयम् !*
*आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय !!*
4/42
*तस्मादज्ञानसम्भूतं ह्यतस्थनं ज्ञानासिनात्मनः !*
*छित्त्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत !!*
*भावार्थ* - (श्रीकृष्ण अर्जुन से) -
जो व्यक्ति श्रद्धावान है, ज्ञान को समर्पित है तथा जिसने इन्द्रियों को वश में कर लिया है, वह इस ज्ञान को प्राप्त करके जल्द ही परमशान्ति को प्राप्त लेता है. (4/39)
विवेकहीन (अज्ञानी), श्रद्धा न रखने वाला और संशय रखने वाला व्यक्ति का पतन होता है. संशयी व्यक्ति के लिए न तो यह लोक है और न ही परलोक है और न ही सुख है. (4/40)
हे अर्जुन ! जिसने योग द्वारा संपूर्ण कर्मों से संन्यास (सम्बन्ध-विच्छेद कर) लिया है, ज्ञान के द्वारा जिसके संशय नष्ट (दूर) हो गए हैं, ऐसे व्यक्ति को कर्म नहीं बाँधते हैं. (4/41)
इसलिए, हे अर्जुन ! हृदय में स्थित इस अज्ञान से पैदा हुए अपने संशय को ज्ञानरूपी तलवार से काट डालो, योग (समता) में स्थित होकर कर्म (युद्ध) के लिए खड़े हो जाओ. (4/42)
*प्रसंगवश*
श्रद्धा-विश्वास और विवेक की जरुरत हम सभी को है. कर्मयोग और ज्ञानयोग में विवेक की प्रमुखता है और भक्तियोग में श्रद्धा-विश्वास की प्रमुखता है. ज्ञान (तत्वज्ञान) सर्वदा रहता है, यह संसार की उत्पत्ति से पूर्व भी था, अभी भी विद्यमान है और संसार के नष्ट होने के बाद भी रहेगा.
ज्ञान हो और श्रद्धा हो तो संशय मिटता है. पर जिसमें ज्ञान और श्रद्धा दोनो का अभाव है, उसका संशय नहीं मिट पाता. वह न तो स्वयं जान पाता है और न ही दूसरों को मान पाता है, उसका पतन निश्चित है.
हमें अज्ञान के फलस्वरूप पैदा अपने संशय को ज्ञानरुपी तलवार से काटकर कर्तव्य-कर्म की ओर बढ़ना चाहिए.
(गीता अध्याय 4 समाप्त।)
सादर,
केशव राम सिंघल
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