*ॐ !*
*जय श्रीकृष्ण !*
*गीता अध्याय 3 - कर्म योग - श्लोक 14 से 16*
*अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः !*
*यज्ञादभवति पर्जन्यो यज्ञ: कर्मसमुदभव: !!* (3/14)
*भावार्थ* - सभी प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं (अर्थात सभी प्राणी अन्न पर ही आश्रित हैं), अन्न की उत्पत्ति वर्षा से होती है, वर्षा यज्ञ से होती है, यज्ञ कर्मों से संपन्न होता है. *टिप्पणी* - यहां अन्न से तात्पर्य भोजन से है.
*कर्म ब्रह्मोदभवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुदाभवं !*
*तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठं !!* (3/15)
*भावार्थ* - वेदों से कर्मों को जानो और ये वेद-अक्षर श्रीभगवान से प्रकट हुए, इसलिए सर्वव्यापी श्रीभगवान यज्ञ (कर्तव्य-पालन) में सदा स्थित रहता है.
*एवं प्रवर्तित चक्रं नानुवर्तयतीह य: !*
*अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति !!* (3/16)
*भावार्थ* - हे अर्जुन ! जो व्यक्ति इस लोक में इस सृष्टि-चक्र के अनुसार प्रचलित (परम्परा) के अनुसार नहीं चलता है, वह इन्द्रियों से आसक्त होकर व्यर्थ ही अघायु (पापमय जीवन) जीता है.
*प्रसंगवश टिप्पणी*
इस प्रकार श्रीकृष्ण अर्जुन को कर्मयोग का उपदेश देते हैं. कर्मयोग का पालन न करना सृष्टि-चक्र के विरुद्ध कार्य करना है और जो व्यक्ति सृष्टि-चक्र के अनुसार कार्य नहीं करता, वह पापमय जीवन जीता है. हमें अपने कर्तव्य की पालना करनी चाहिए.
सादर,
केशव राम सिंघल
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