गीता अध्ययन एक प्रयास
ॐ
जय श्रीकृष्ण
गीता अध्याय 9 - ज्ञान विज्ञान
कर्मों का समर्पण और निष्काम कर्म
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प्रतीकात्मक चित्र - साभार NightCafe
गीता में यह ज्ञान दिया गया है कि जो व्यक्ति (भक्त) अपने सभी कर्मों को भगवान् को अर्पित कर देता है, वह पूरी तरह से मुक्त होकर भगवान् को प्राप्त होता है अर्थात् उसे मोक्ष प्राप्त होता है यानी कि वह जन्म-मृत्यु के बंधन से मुक्त हो जाता है। निष्काम कर्म से तात्पर्य ऐसे कर्म से है जो फल की इच्छा के बिना किए जाते हैं। इस सन्दर्भ में गीता श्लोक 9 / 27 से 29 का अध्ययन करना चाहिए, जिससे हमें निम्न शिक्षाएँ मिलती हैं -
(1) कर्मों का समर्पण हमारे हित में है। सभी कार्य भगवान को अर्पित करने से कर्मबंधन टूटता है।
(2) हमें निष्काम भावना से कर्म करने चाहिए। फल की इच्छा त्यागकर कार्य करना मोक्ष का मार्ग है।
(3) भगवान सभी के प्रति समान हैं, पर भक्त के लिए वे विशेष हैं।
(4) संन्यास और भक्ति के माध्यम से भगवान की प्राप्ति अर्थात मोक्ष की प्राप्ति हमारे जीवन का परम लक्ष्य हो सकता है।
आइये, कर्मों के समर्पण और निष्काम कर्म को हम दैनिक जीवन के उदाहरण से समझे -
(1) घरेलू कार्यों में समर्पण - एक ग्रहणी अपने परिवार के लिए भोजन बनाती है। सामान्यतः वह यह सोच सकती है कि उसे प्रशंसा मिलनी चाहिए या उसका बनाया भोजन सबको पसंद आना चाहिए। निष्काम कर्म का अभ्यास यह होगा कि वह भोजन को भगवान को अर्पित करने की भावना से बनाएँ, जैसे कि यह एक सेवा है। वह यह सोचें कि यह कार्य परिवार की भलाई के लिए और भगवान की कृपा के रूप में किया जा रहा है, बिना किसी प्रशंसा या परिणाम की अपेक्षा के। इसका सकारात्मक प्रभाव यह होगा कि इससे गृहणी के अपने कार्य में आनंद बढ़ेगा, और यदि कोई आलोचना भी हो, तो वह मन को विचलित नहीं करेगी।
(2) सामाजिक सेवा में निष्काम भाव - ऐसे अनेक अवसर हमें मिलते हैं जब हम किसी सामुदायिक सेवा कार्यों में भाग लेते हैं, जैसे गाँव या मोहल्ले में सफाई अभियान, जरूरतमंदों को भोजन वितरण या चिकित्सा शिविर। निष्काम कर्म तब होता है जब हम यह कार्य केवल इसलिए करते हैं क्योंकि यह सही है और भगवान की सृष्टि की सेवा है, न कि नाम, सम्मान, या पुरस्कार की इच्छा से। इसका सकारात्मक प्रभाव यह होगा कि यह हमें अहंकार से मुक्त करेगा और इस तरह कार्य अधिक अर्थपूर्ण बनता है।
(3) दैनिक पूजा या ध्यान में समर्पण - जब हम सुबह पूजा या ध्यान करते हैं, तो सामान्यतः हमारे मन में कुछ माँगने की इच्छा हो सकती है, जैसे - मेरे कार्य सफल हों या मुझे लाभ मिले। निष्काम भाव से पूजा या ध्यान तब होता है जब हम केवल भगवान के प्रति कृतज्ञता और समर्पण के साथ पूजा या ध्यान करते हैं, बिना किसी सांसारिक इच्छा के। इस प्रकार यह पूजा या ध्यान भगवान को अर्पित होती है। इसका सकारात्मक प्रभाव यह होगा कि इससे हमारा मन शांत और केंद्रित होता है, और हम आंतरिक रूप से अपने को समृद्ध महसूस करते हैं।
(4) रिश्तों में निष्काम भाव - हम अपने मित्र या परिवार के लिए कुछ करते हैं, जैसे किसी की मदद करना, समय देना या पैतृक संपत्ति में भाई / बहन के पक्ष में अपना हक़ छोड़ना। यदि हम यह अपेक्षा करें कि बदले में हमें कुछ मिलेगा (जैसे धन्यवाद, कोई लाभ या एहसान), तो यह कर्म बंधन बन सकता है। निष्काम कर्म तब है जब हम यह सोचकर मदद करते हैं कि यह हमारा कर्तव्य है और भगवान का कार्य है, बिना किसी प्रत्याशा के। इसका सकारात्मक प्रभाव यह होगा कि इससे रिश्तों में विश्वास और प्रेम बढ़ता है, और मन में शांति रहती है।
कार्यस्थल पर निष्काम कर्म
कार्यस्थल पर निष्काम कर्म अर्थात् बिना फल की इच्छा के काम करना प्रारंभ में चुनौतीपूर्ण लग सकता है, क्योंकि वहाँ परिणाम (जैसे पदोन्नति, वेतन वृद्धि, या मान्यता) की अपेक्षा स्वाभाविक होती है। लेकिन गीता का दर्शन इसे संभव बनाता है। यहाँ कुछ व्यावहारिक सुझाव और दृष्टिकोण हैं, जिसे अपनाकर हम अपना निष्काम भाव अपने कर्मों में ला सकते हैं -
(1) अपने कार्य को कर्तव्य मानें - हम अपने कार्य को केवल नौकरी न समझें, बल्कि इसे एक कर्तव्य के रूप में देखें, जो समाज, संगठन, या भगवान की सृष्टि की सेवा के लिए है। उदाहरण के लिए, यदि मैं शिक्षक हूँ, तो यह सोचूँ कि मैं अपने शिक्षा दायित्व को पूरा कर बच्चों का भविष्य बना रहा हूँ। यदि मैं व्यवसायी हूँ, तो यह मानूँ कि मैं ग्राहकों की अपेक्षाएँ पूरी कर रहा हूँ। उदाहरण के लिए, एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर अपने कोड को इसलिए बेहतर बनाए, क्योंकि यह उसके संगठन और उपयोगकर्ताओं के लिए उपयोगी है, न कि केवल बॉस की प्रशंसा के लिए। इसका सकारात्मक प्रभाव यह होगा कि अपने अंदर निष्काम भावना लाने से कार्य में लगन बढ़ती है, और परिणाम की चिंता कम होती है।
(2) परिणाम भगवान को समर्पित करें - हम कोई भी कार्य शुरू करने से पहले अपने मन में यह भाव लाएँ कि मैं यह कार्य भगवान को अर्पित करता हूँ। इसका जो भी परिणाम होगा, वह उनकी इच्छा है। यह गीता के "मदर्पणम्" का व्यावहारिक रूप है। उदाहरण के लिए, यदि हम किसी प्रोजेक्ट पर कार्य कर रहे हैं, तो पूरी मेहनत करें, पर यह न सोचें कि इस कार्य करने से मुझे पदोन्नति मिलनी ही चाहिए। इसके बजाय, मैं यह सोचूँ कि मैंने अपना सर्वश्रेष्ठ दिया, अब परिणाम भगवान पर छोड़ता हूँ। इसका सकारात्मक प्रभाव यह होगा कि इससे मेरा कार्य सम्बन्धी तनाव कम होगा और असफलता या आलोचना का डर नहीं रहेगा।
(3) प्रक्रिया पर ध्यान दें, परिणाम पर नहीं - हमें अपने कार्य की प्रक्रिया को बेहतर बनाने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। हमें अपने आप से पूछना चाहिए कि क्या मैं इसे और बेहतर ढंग से कर सकता हूँ या क्या यह कार्य मेरे मूल्यों के अनुरूप है? परिणाम, जैसे अधिलाभ या प्रशंसा की कामना से बचना चाहिए। उदाहरण के लिए, एक विक्रेता (सेल्सपर्सन) को ग्राहकों के साथ ईमानदारी और मेहनत से बातचीत करनी चाहिए, बिना यह सोचे कि येन-केन-प्रकारेण मुझे यह सौदा पक्का करना है। विक्रेता को केवल अपनी प्रस्तुति और सेवा को बेहतर बनाना चाहिए। इसका सकारात्मक प्रभाव यह होगा कि इससे कार्य की गुणवत्ता बढ़ती है, और मन शांत रहता है।
(4) सहकर्मियों के साथ निष्काम भाव -:हमें कार्यस्थल पर सहकर्मियों की मदद करनी चाहिए, बिना यह अपेक्षा किए कि वे बदले में वे कुछ करेंगे या देंगे। यदि कोई सहकर्मी गलती करता है, तो उसे सुधारने में या मार्गदर्शन देने में मदद करें, बिना यह सोचे कि इससे मुझे क्या मिलेगा। उदाहरण के लिए, यदि हमारी टीम में कोई नया कर्मचारी है, तो उसे प्रशिक्षित करें, यह सोचकर कि यह संगठन के लिए अच्छा है, न कि यह दिखाने के लिए कि हम कितने योग्य हैं। इसका सकारात्मक प्रभाव यह होगा कि इससे कार्यस्थल पर संबंध मजबूत होते हैं, और हमारे सकारात्मक प्रभाव में वृद्धि होती है।
(5) आलोचना और प्रशंसा को समान भाव से देखें - गीता में भगवान की शिक्षा है कि सुख-दुःख, प्रशंसा-निंदा को समान भाव से देखना चाहिए। कार्यस्थल पर यदि अधिकारी हमारी प्रशंसा या आलोचना करे, तो दोनों को शांत मन से हम स्वीकार करें। यह सोचें कि हमारा कार्य भगवान को समर्पित है और आलोचना को सुधार का अवसर मानें। यदि प्रशंसा मिले, तो उसे अहंकार का कारण न बनने दें। इसका सकारात्मक प्रभाव यह होगा कि इससे मानसिक संतुलन बना रहता है, और हम दबाव में भी स्थिर रहते हैं।
(6) नियमित आत्म-चिंतन - दिन के अंत में हमें कुछ मिनट निकालकर अपने कार्यों का मूल्यांकनकरना चाहिए। स्वयं से यह पूछें कि क्या मैंने आज अपने कार्य को पूरी निष्ठा से किया या क्या मैंने परिणाम की चिंता को छोड़कर कार्य किया? यह चिंतन हमें निष्काम कर्म की ओर ले जाएगा। उदाहरण के लिए, एक प्रबंधक (मैनेजर) दिन के अंत में यह देखे कि उसने अपनी टीम को कितनी निष्पक्षता और समर्पण से नेतृत्व दिया, बिना यह सोचे कि उसे अगली तिमाही में क्या मिलेगा। इसका सकारात्मक प्रभाव यह होगा कि इससे हमारी कार्यशैली में सुधार होगा, और हम अधिक आत्म-जागरूक बनते हैं।
कुछ छोटे कदम
(1) सुबह का संकल्प - कार्य शुरू करने से पहले 1-2 मिनट के लिए यह संकल्प लें - आज मैं अपने कार्य को भगवान को समर्पित करता हूँ और फल की चिंता नहीं करूँगा।
(2) ध्यान और प्रेरणा - कार्यस्थल पर तनाव के समय गीता के श्लोक (जैसे 9.27) को याद करें या कोई मंत्र (जैसे "ॐ नमो भगवते वासुदेवाय") का जाप करें। यह मन को शांत रखेगा।
(3) छोटे कार्यों से शुरुआत करें - पहले छोटे कार्यों (जैसे ईमेल लिखना या मीटिंग की तैयारी) को निष्काम भाव से करें, फिर धीरे-धीरे बड़े प्रोजेक्ट्स पर लागू करें। हर कार्य की प्लानिंग पर ध्यान दें। कार्य करने के बाद कार्य की जाँच करें और कोई कमी हो तो सुधार करें।
(4) कृतज्ञता माने और व्यक्त करें - दिन के अंत में उन बातों के लिए कृतज्ञता व्यक्त करें, जो आपके कार्य से दूसरों को लाभ पहुँचाती हैं। इससे समर्पण की भावना बढ़ती है। यदि किसी ने आपके किसी कार्य में आपको सहयोग दिया है तो उसे धन्यवाद ज्ञापित करें।
सार
निष्काम कर्म और कर्मों का समर्पण का अभ्यास दैनिक जीवन में कार्यस्थल पर तनाव को कम करता है, कार्य की गुणवत्ता को बढ़ाता है, और मन को शांति प्रदान करता है। यह गीता के दर्शन को जीवंत करने का व्यावहारिक तरीका है।
अंत में एक प्रश्न -
आप अपने दैनिक जीवन में निष्काम कर्म को कैसे लागू करते हैं? अपनी कहानी साझा करें!
सादर,
केशव राम सिंघल