गीता सार - ०१
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जय श्रीकृष्ण।
गीता भगवान् की वाणी है।
गीता उपनिषदों का सार है।
आकाश में एक गुण 'शब्द' है, वायु में दो गुण 'शब्द और स्पर्श' हैं।
सभी दर्शन गीता के अंदर हैं।
वासुदेवः सर्वम् = भगवान् सर्वत्र हैं।
प्रवृति का उदय होना भोग है।
निवृति की दृढ़ता होना योग है।
सब कुछ परमात्मा है। यही गीता मानती है।
गीता समग्र की वाणी है।
गीता को जो जिस दृष्टि से देखता है, उसे वह वैसी ही दिखती है।
कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग तीन योग हैं।
शरीर (अपरा) को लेकर कर्मयोग है।
शरीरी (परा) को लेकर ज्ञानयोग है।
शरीर(अपरा) और शरीरी (परा) दोनों के मालिक भगवान् को लेकर भक्तियोग है।
समत्वं योग उच्यते = समता योग है। (२/४८)
योगस्थः कुरु कर्माणि = योग की आवश्यकता कर्म में है। (२/४८)
योगः कर्मसु कौशलम = कर्मों में योग ही मुख्य है। (२/५०)
संसार में व्यक्ति और वस्तु के साथ संयोग होता है। जहाँ संयोग होता है, वहीं कर्तव्य पालन की जरुरत है। संयोग का तो वियोग होता है, पर योग का वियोग नहीं होता।
योग की प्राप्ति पर राग-द्वेष, काम-क्रोध से मुक्ति मिलती है।
योग की प्राप्ति पर स्वाधीनता, निर्विकारता असंगता और समता की प्राप्ति होती है।
ॐ तत् सत् !
संकलन - केशव राम सिंघल
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