*ॐ*
*जय श्रीकृष्ण*
*गीता अध्याय 7 - दिव्य ज्ञान*
7/8
*रसोअहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययोः !*
*प्रणवः सर्ववेदेषु शब्दः खे पौरुषं नृषु !!*
7/9
*पुण्यो गन्धः पृथिव्यां च तेजश्चास्मि विभावसौ !*
*जीवनं सर्वभूतेषु तपश्चास्मि तपस्विषु !!*
7/10
*बीजं मां सर्वभूतानां विद्धि पार्थ सनातनम् !*
*बुद्धिर्बुद्धिमतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम् !!*
7/11
*बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम् !*
*धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोअस्मि भरतर्षभ !!*
*भावार्थ*
भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं -
हे कुन्तीनन्दन (अर्जुन) ! जल का मैं स्वाद हूँ, चन्द्रमा और सूर्य का मैं प्रकाश हूँ, सम्पूर्ण वेदों में ओंकार, आकाश में शब्द और मनुष्यों में पुरुषार्थ (सामर्थ्य) मैं हूँ. (7/8) पृथ्वी में पवित्र गंध मैं हूँ और अग्नि में तेज मैं हूँ तथा सम्पूर्ण प्राणियों में जीवनशक्ति मैं हूँ और तपस्वियों में तपस्या मैं हूँ. (7/9) हे पार्थ (अर्जुन) ! सम्पूर्ण प्राणियों का अनादि बीज मुझे जान. बुद्धिमानों में बुद्धि और तेजस्वियों में तेज मैं हूँ. (7/10) हे भरतर्षभ (अर्जुन) ! बलवानों में काम और राग से दूर बल मैं हूँ और प्राणियों में धर्मयुक्त काम मैं ही हूँ. (7/11)
*प्रसंगवश*
*पंचमहाभूत और कारण नाम*
पृथ्वी - गंध, जल - रस, तेज (अग्नि) - रूप, वायु - स्पर्श, आकाश - शब्द
रूप में दो शक्तियाँ निहित हैं - एक 'प्रकाशिका' अर्थात प्रकाश करने वाली और दूसरी 'दाहिका' अर्थात जलाने वाली. 'प्रकाशिका' शक्ति 'दाहिका' शक्ति के बिना रह सकती है, पर दाहिका शक्ति 'प्रकाशिका' शक्ति के बिना नहीं रह सकती.
सूर्य और अग्नि में दोनों शक्तियाँ हैं. चन्द्रमा में प्रकाशिका शक्ति तो है, पर उसमें दाहिका शक्ति तिरकृत होकर 'सौम्य शक्ति' प्रकट हो गयी है, जो शीतलता देने वाली है.
इस सृष्टि की रचना में श्रीभगवान ही कर्ता हैं, वे ही कारण हैं और वे ही कार्य हैं. भगवान ही सम्पूर्ण संसार के कारण हैं, संसार के रहते हुए भी वे सभी में परिपूर्ण हैं और संसार के न रहने पर भी वे रहते हैं.
सादर,
केशव राम सिंघल
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