*ॐ*
*जय श्रीकृष्ण*
*गीता अध्याय 6 - ध्यानयोग - श्लोक 40 से 47*
6/40
*श्रीभगवानुवाच*
*पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते !*
*न ही कल्याणकृत्कश्चिद्दुर्गतिं तात गच्छति !!*
6/41
*प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वतीयः !*
*शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोअभिजायते !!*
6/42
*अथवा योगिनामेव कुले भवति धीमताम् !*
*एतद्धि दुर्लभतरं लोके जन्म यदीदृशम् !!*
6/43
*तत्र तं बुद्धिसंयोग लभते पौर्वदेहिकम् !*
*यतते च ततो भूयः संसिद्धौ कुरुनन्दन !!*
6/44
*पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियते ह्यवशोअपि सः !*
*जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते !!*
6/45
*प्रयत्नाद्यतमानस्तु योगी संशुद्धकिल्बिषः !*
*अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो याति परां गतिम् !!*
6/46
*तपस्वियोअधिको योगी ज्ञानिभ्यो अपिमतो अधिकः !*
*कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन !!*
6/47
*योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना !*
*श्रद्धावान्भजते यो मां सं मे युक्ततमो मतः !!*
*भावार्थ*
श्रीकृष्ण भगवान बोले -
हे प्रथानन्दन (अर्जुन) ! उसका ना तो इस लोक में और न परलोक में विनाश होता है. क्योंकि हे तात (मेरे मित्र) कल्याणकारी काम करने वाला कोई भी व्यक्ति दुर्गति को नहीं जाता. (6/40) योगभ्रष्ट व्यक्ति (जो व्यक्ति योग से विचलित हो गया है) पुण्यकर्म करने वालों के लोकों में अनेकानेक वर्षों तक रहने के बाद सदाचारी व्यक्तियों के घर में जन्म लेता है. (6/41) अथवा ज्ञानवान व्यक्तियों के कुल में जन्म लेता है. इस प्रकार का जो यह जन्म है, संसार में निसंदेह बहुत ही दुर्लभ है. (6/42) हे कुरुनन्दन (अर्जुन) ! वहाँ पर (ऐसा जन्म लेकर) उसको पहले मनुष्य जन्म की साधन-संपत्ति (अनायास ही) प्राप्त होती है, और फिर वह साधन की सिद्धि के विषय में पुनः प्रयास करता है. (6/43) वह (योगभ्रष्ट व्यक्ति) स्वयं के वश में न होता हुआ भी उस पूर्व मनुष्य जन्म में किए अभ्यास के कारण ही योग की ओर आकर्षित होता है क्योंकि योग (समता) का जिज्ञासु भी वेदों के सकाम कर्म का अतिक्रमण कर जाता है. (6/44) परन्तु जो व्यक्ति योग के लिए प्रयत्नपूर्वक कोशिश करता है और जिसके पाप नष्ट हो गए है तथा जो अनेक जन्मों में शुद्ध (सिद्ध) हुआ है, वह व्यक्ति परम गति (कल्याण) को प्राप्त होता है. (6/45) तवस्वी से योगी श्रेष्ठ है, ज्ञानी से भी योगी श्रेष्ठ है, कर्मियों से भी योगी श्रेष्ठ है, ऐसा मेरा मानना है, अतः हे अर्जुन तू योगी हो जा. (6/46) और सम्पूर्ण योगियों में जो भी श्रद्धावान भक्त मुझमें तल्लीन होकर अपने अन्तःकरण से मेरा भजन करता है, वह सर्वश्रेष्ठ है, ऐसा मेरा मत है. (6/47)
*प्रसंगवश*
साधन (अपने कल्याण के लिए प्रयत्न) करने वाले व्यक्ति दो तरह के होते हैं. पहला, वासना सहित साधक और दूसरा, वासना रहित साधक. वासना सहित साधक वह है, जिसकी साधन में श्रद्धा है और जो परमात्मा को पाने का यत्न तो करता है पर भोगों में उसकी रूचि सर्वदा समाप्त नहीं हुई है अतः वह साधन से विचलित होने पर योगभ्रष्ट हो जाता है. दूसरा साधक, जिसके भीतर वासना नहीं है, तीव्र वैराग्य तो है पर पूर्णता प्राप्त करनेसे पहले वह योगभ्रष्ट हो जाता है.
अनेकजन्मसंसिद्धः = ऐसा व्यक्ति जिसका मनुष्य जन्म में योग के यत्न से शुद्धि हुई, पर अंत समय में योग से विचलित होने के कारण स्वर्गादि लोकों में गया. वहाँ भोगों से अरुचि होने के कारण शुद्धि हुई और फिर मनुष्य जन्म लेकर योग के लिए प्रयत्न करने से शुद्धि हुई.
तपस्वी = ऋद्धि-सिद्धि पानेकेलिए जो भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी आदि का कष्ट सहन करते हैं.
योगी = ऐसाव्यक्ति जो निष्कामभाव से परमात्मा प्राप्ति के लिए यत्न करता है.
ज्ञानी = शास्त्रों को जानने वाला विद्वान
कर्मिभ्य = ऐसा व्यक्ति जो इस लोक औरपरलोक में सुख की कामना करते हुए (सकाम भाव से) यज्ञ, दान, तीर्थ आदि शास्त्रीय कर्म करते हैं.
सादर,
केशव राम सिंघल