*ॐ*
*जय श्रीकृष्ण !*
*गीता अध्याय 6 - ध्यान योग - श्लोक 7 से 10*
6/7
*जितात्मनः प्रशांतस्थ परमात्मा समाहितः !*
*शीतोष्णसुखादुःखेषु तथा मानापमानयोः !!*
6/8
*ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रियः !*
*युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्टाश्मकाञ्चनः !!*
6/9
*सुहृन्मित्रार्युदासीन मध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु !*
*साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते !!*
6/10
*योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थितः !*
*एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः !!*
*भावार्थ*
(श्रीकृष्ण अर्जुन से)
जिस व्यक्ति ने अपने आप पर विजय प्राप्त कर ली है (अर्थात् जिसने अपना अंतःकरण जीत लिया है), ऐसा व्यक्ति अनुकूल-प्रतिकूल, सुख-दुःख तथा मान-अपमान प्राप्त होने पर भी निर्विकार (शांत) रहता है, ऐसे व्यक्ति में परमात्मा(श्रीभगवान) सदैव समाहित रहते हैं अर्थात् परमात्मा (श्रीभगवान) उसे सदैव प्राप्त हैं. (6/7)
जिसका अंतःकरण कर्म करने की जानकारी (ज्ञान) और कर्मों की सिद्धि-असिद्धि में समभाव रखने (विज्ञान) से तृप्त है, जो निर्विकार है, जिसने अपनी इंद्रियों को जीत लिया है, जो कंकड़, पत्थर और स्वर्ण को एक समान देखता है, ऐसा व्यक्ति योग (समता) में संलग्न कहा जाता है. (6/8)
जो व्यक्ति हितैषी, मित्र, शत्रु, उदासीन, मध्यस्थ, ईर्षालु, सम्बंधी तथा साधु आचरण करने वाले और पाप आचरण करने वाले में समानभाव रखता है, वह व्यक्ति श्रेष्ठ है. (6/9)
भोग पदार्थों का त्याग कर, इच्छा-रहित होकर और अंतःकरण तथा शरीर को वश में रखकर व्यक्ति एकांत स्थान में अकेला रहकर अपने अंतःकरण को लगातार परमात्मा (श्रीभगवान) के ध्यान में लगाए. (6/10)
*प्रसंगवश*
यह संदेश स्पष्ट है कि हमें समान भाव रखने अर्थात् समबुद्धि का प्रयास करना चाहिए, क्योंकि समबुद्धिवाला व्यक्ति निर्लिप्त रहता है. निर्लिप्त रहने से योग होता है, लिप्तता होते ही 'भोग' की स्थिति आ जाती है.
*विचार करें*
*हम समता कैसे पाएँ ?*
बुराई रहित होना समता पाने का उपाय है. इसके लिए छः बातों का ध्यान रखें - किसी का बुरा ना मानें, किसी का बुरा ना करें, किसी का बुरा ना सोचें, किसी में बुराई ना देखें, किसी की बुराई ना सुने और किसी की बुराई ना कहें.
सादर,
केशव राम सिंघल
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