ॐ
जय श्रीकृष्ण
गीता अध्याय 3 - कर्मयोग - से मेरी सीख
गीता अध्याय 3 कर्तव्य कर्म करने को प्रमुखता देता है। इस अध्याय में प्रमुखता से बताया गया है कि निष्काम भाव से आसक्ति से दूर रहकर दूसरों के हित में अपने कर्तव्य कर्म का पालन करना चाहिए।
कर्मयोग में निश्चयात्मक बुद्धि की प्रधानता है। जब व्यक्ति अपने कल्याण के लिए निश्चय कर लेता है, तब अनुकूलता या प्रतिकूलता उसे बाधित नहीं कर पाती। निश्चयात्मक बुद्धि के मार्ग में भोग और संग्रह की आसक्ति बाधा है। हमें भोग और संग्रह की आसक्ति से दूर रहना चाहिए।
इस भौतिक संसार में मिली कोई वस्तु अपनी नहीं है। जो वस्तुएं हमें इस भौतिक संसार में मिली हैं, उनका हमें सदुपयोग करना चाहिए, दूसरों के हित में उपयोग करना चाहिए। इंद्रियों को वश में कर कामना का दमन किया जा सकता है। हमें अपनी इंद्रियों को वश में रखना चाहिए।
सादर,
केशव राम सिंघल
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