*ॐ !*
*जय श्रीकृष्ण !*
*गीता अध्याय 3 - कर्म योग - श्लोक 29 व 30*
*प्रकृतेर्गुणसम्मूढा: सज्जन्ते गुणकर्मसु !*
*तानकृत्स्नविदो मन्दान्कृत्स्नविन्न विचालयेत् !!* (3/29)
*भावार्थ* - (श्रीकृष्ण अर्जुन से) - प्रकृति के गुणों से मोहित व्यक्ति गुणों और कर्मों में आसक्त रहते हैं. इन अपूर्ण ज्ञान वाले अज्ञानी व्यक्तियों को पूर्ण ज्ञान जानने वाला ज्ञानी विचलित ना करे. (तात्पर्य - जो व्यक्ति प्रकृति के गुणों से मोहित है और प्रकृति के गुणों और कर्मों में आसक्त है, वह् अज्ञानी है.)
*प्रसंगवश*
अज्ञानी व्यक्ति की सांसारिक भोग और संग्रह में रूचि रहती है. उसकी धनादि प्राप्त पदार्थों से ममता रहती है और जो अप्राप्त है, उसे प्राप्त करने की कामना वह करता है परंतु वह प्रकृतिजन्य गुणों से मोहित (बंधा) रहता है और वह शास्त्रों में, शास्त्रानुसार शुभकर्मों में और उन कर्मों के फलों में श्रद्धा-विश्वास करता है. ऐसे व्यक्ति के लिए श्लोक 3/26 और 3/29 में वर्णन किया गया है.
*मयि सर्वाणि कर्माणि संन्ययस्याध्यात्मचेतसा !*
*निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वर: !!* (3/30)
*भावार्थ* - (श्रीकृष्ण अर्जुन से) - अपने चित्त को मुझमें केंद्रित कर, अपने सभी कर्मों को मुझमे अर्पण कर, आशा और ममता से दूर रहकर, संताप रहित होकर युद्ध कर.
*प्रसंगवश*
श्रीभगवान को अर्पण करने वाला व्यक्ति कर्म-बंधन से मुक्त हो जाता है. 'सभी कर्मों को मुझमें अर्पण कर' से तात्पर्य है कि व्यक्ति को क्रिया और पदार्थ को अपने और अपने लिए ना मानकर परमात्मा (श्रीभगवान) और परमात्मा (श्रीभगवान) के लिए मानना चाहिए. कारण कि परमात्मा (श्रीभगवान) समग्र हैं और संपूर्ण कर्म तथा पदार्थ समग्र परमात्मा (श्रीभगवान) के अंतर्गत हैं.
सादर,
केशव राम सिंघल
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