ॐ
जय श्रीकृष्ण
अथ केन प्रयुक्तोअयं पापं चरति पूरुष: !
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजित !! (3/36)
भावार्थ - अर्जुन श्रीकृष्ण से कहते हैं - हे वार्ष्णेय ! व्यक्ति न चाहते हुए भी जबर्दस्ती नियोजित रूप से पाप का आचरण करने के लिए क्यों प्रेरित होता है?
श्रीभगवानुवाच
काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भव:!
महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम् !! (3/37)
भावार्थ
श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं - रजोगुण से उत्पन्न यह काम ही पाप का कारण है। पाप से क्रोध उत्पन्न होता है, जो सर्वभक्षी महापापी है, जिसे तू अपना शत्रु समझ।
तात्पर्य - जो मैं चाहूं वही मिले, यही काम है। पदार्थो, धनादि के संग्रह की इच्छा, सुख की आसक्ति ये सभी काम के रूप हैं। आसक्ति से रजोगुण और रजोगुण से कामना पैदा होती है। कामना में बाधा होने से क्रोध उत्पन्न होता है।
धूमेनाव्रियते वहिनर्यथादर्शो मलेन च !
यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम् !! (3/38)
भावार्थ
श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं -
जैसे धुंए से अग्नि और मैल से दर्पण ढका रहता है, जैसे भ्रूण गर्भाशय द्वारा ढका रहता है, उसी प्रकार कामना द्वारा यह ज्ञान/विवेक ढका हुआ है।
प्रसंगवश
यहां यह स्पष्ट संकेत है कि कामना ही कल्याण के मार्ग में बाधक है। हमें कामना का त्याग करना है।
आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा !
कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च !! (3/39)
श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं -
हे कुन्तीपुत्र ! इस प्रकार व्यक्ति का विवेक कामरूपी नित्य शत्रु से सदा ढका रहता है, जो कभी तृप्त नहीं होता और अग्नि के समान जलता रहता है।
इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते !
एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम् !! (3/40)
श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं -
इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि कामना के निवास स्थान हैं। इन इंद्रियों, मन और बुद्धि के द्वारा यह कामना ज्ञान को ढककर इस देह-अभिमानी व्यक्ति को मोहित करती है।
तस्मात्त्वमिद्रियाणयादौ नियम्य भरतर्षभ !
पाप्मानं प्रजहि ह्येन ज्ञानविज्ञाननाशनम् !! (3/41)
भावार्थ
(श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं) -
भारतवंशियों में श्रेष्ठ! है अर्जुन! इसलिए तू सबसे पहले अपनी इंद्रियों को वश में कर इस ज्ञान और विज्ञान का नाश करने वाले महान पापी (शत्रु) काम का निश्चित ही दामन कर।
प्रसंगवश - इंद्रियों को वश में करके ही काम का दमन किया जा सकता है। जो व्यक्ति इंद्रियों को वश में करके निष्काम भाव से कर्तव्य-कर्म करता है, उसका कल्याण होता है।
इन्द्रियाणि परण्याहुरिन्द्रियेभ्य: परं मन: !
मनसस्तु परा बुद्धियों बुद्धे: परतस्तु स: !! (3/42)
एवं बुद्धे: परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना !
जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम् !! (3/43)
भावार्थ
(श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं) -
इंद्रियों को श्रेष्ठ कहा जाता है। इंद्रियों से श्रेष्ठ मन है। मन से भी श्रेष्ठ बुद्धि है और आत्मा बुद्धि से भी श्रेष्ठ है। इस प्रकार बुद्धि से श्रेष्ठ आत्मा को जानकर बुद्धि के द्वारा मन को वश में कर, हे महाबाहो (अर्जुन)! तुम कामरूपी दुर्जेय शत्रु पर जीत हासिल करो।
(गीता कर्मयोग अध्याय 3 समाप्त।)
सादर,
केशव राम सिंघल