कर्म
2/47 में कर्म (कर्तव्य-पालन ) की बात कही गई है।
यहाँ तीन विचारणीय बिंदु हैं -
(1) वे कर्म जिन्हें हमें अपनी कर्तव्य पालना के लिये करना चाहिए।
(2) विकर्म - जो कर्म निंदनीय है, जो विधि-सम्मत नहीं हैं, जो हमारे कर्तव्य भी नहीं है।
(3) अकर्म - अपने कर्मों को नहीं करना अर्थात् अपने कर्तव्य की पालना नहीं करना।
श्रीकृष्ण ने उपदेश दिया कि निष्क्रिय न रहो, बल्कि फल के प्रति आसक्त हुए बिना अपना कर्म करो। अकर्म अर्थात् अपने कर्तव्यों की पालना न करना पापमय है।
सादर,
केशव राम सिंघल
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