Tuesday, April 16, 2013

कच्चातीवु (Kachchatheevu) द्वीप पर भारत में राजनीति





कच्चातीवु द्वीप समझौता 1974 को रद्द करने की माँग बढ़ती जा रही है और भारत में राजनीति ते़ज हो रही है. जयललिता के नेतृत्व वाली तमिलनाडु सरकार ने पिछले माह ही केन्द्र सरकार से माँग की कि 1974 के उस समझौते को रद्द कर दिया जाए, जिसके तहत कच्चातीवु द्वीप श्रीलंका को दे दिया गया था. अब करुणानिधि के नेतृत्व वाली द्रुमुक समर्थित '‍तमिल ईलम समर्थक संगठन' (TESO - Tamil Eelam Supporters Organization) की बैठक में यह प्रस्ताव पारित हुआ कि द्रुमुक सरकार के विरोध के बावजूद 1974 में यह छोटा सा द्वीप भारत सरकार द्वारा श्रीलंका को सौंप दिया गया. इस सम्बन्ध में इस संगठन के समर्थकों का कहना है कि जब भी देश का कोई हिस्सा दुसरे देश को सौपा जाता है तो इसे संसद के दोनों सदनों की मंजूरी के बाद कानून के माध्यम से किया जाता है. उनके अनुसार संसद में दोनों सदनों की मंजूरी नहीं ली गई, अत: द्वीप का श्रीलंका को सौपना कानूनी रूप से मान्य नहीं है. अत: समझौता रद्द करने और यह घोषित करने के लिए कि कच्चातीवु भारत का हिस्सा है, इस संगठन ने भारत के सुप्रीम कोर्ट में जाने का फैसला किया है.

जो लोग कच्चातीवु समझौता 1974 रद्द करवाने के पक्षधर है, वे यह भी कहते हैं कि 1974 के समझौते में दोनो देशों के मछुआरों को कच्चातीवु द्वीप क्षेत्र से मछली पकड़ने का पारंपरिक अधिकार है और समझौते के विपरीत श्रीलंका तमिलनाडु के मछुआरों को वहां से मछली पकड़ने से रोक रहा है, उनके मछली पकड़ने के जाल को नुकसान पहुँचाता है और उन्हें गिरफ्तार करने में भी नहीं हिचकता.

भारत की राजनीति में यह मामला उलझता जा रहा है. हमे इस सम्बन्ध में तथ्यों को सकारात्मक और निष्पक्ष रूप से समझने की जरूरत है. कच्चातीवु द्वीप एक छोटा सा द्वीप है और 1974 तक इस द्वीप के नियंत्रण पर विवाद रहा. अँगरेजों के शासन के दौरान इस द्वीप का नियंत्रण दोनों देशों की सरकारें करती थी, क्योंकि दोनों देश अँगरेजों के शासन के अधीन ही थे.यह द्वीप सशर्त आधार पर 1974 में भारत ने श्रीलंका को दे दिया. इस द्वीप पर एक कैथोलिक चर्च है तथा श्रीलंका सरकार ने इसे एक पवित्र क्षेत्र घोषित किया हुया है. इस द्वीप पर पीने का पानी भी उपलब्ध नहीं है, कोई आश्रय नहीं है, भोजन नहीं है, देखने के लिए समुद्र के नीले पानी को देखने के अलावा भी कुछ नहीं है. हालाँकि चर्च त्यौहार तीन दिनों तक चलता है, जिसमे भारत और श्रीलंका से पादरी जाते हैं और देशी और मशीनी नावों से तीर्थयात्री चर्च त्यौहार के दौरान वहां पहुँचते हैं.

1974 समझौते के अधीन अब कच्चातीवु श्रीलंका जल क्षेत्र में आता है और भारतीय मछुआरों को द्वीप के आसपास मछली पकड़ने का अधिकार नहीं है. भारतीय मछुआरों को अपना जाल सुखाने और चर्च के उपयोग की अनुमति दी गई थी. यूनाइटेड नेशन्स कन्वेंशन ऑन लॉ ऑफ़ दी सी (United Nations Convention on Law of the Sea) के अधीन 1976 में अंतरराष्ट्रीय समुद्री सीमा रेखा के परिसीमन समझौते द्वारा अब भारतीय मछुआरों को जाल सुखाने और चर्च के उपयोग का अधिकार भी नहीं है. इस प्रकार 1974 का वह् समझौता जो अधिकार भारतीय मछुआरों को प्रदान करता था, अब समुद्री सीमा रेखा के परिसीमन से समाप्त हो गया.

हालाँकि इस लेख का लेखक कानूनी मामलों का अच्छा जानकार तो नहीं है, पर एक बात बिलकुल साफ़ है कि किसी एक देश की अदालत कोई अंतरराष्ट्रीय समझौता कैसे बदल सकती या रद्द कर सकती है. क्योंकि अंतरराष्ट्रीय समझौता अंतरराष्ट्रीय अदालत में या अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ही निपटाए जा सकते हैं, ऐसे में किसी संगठन का सुप्रीम कोर्ट जाने से क्या प्रयोजन सिद्ध होगा, समझ के बाहर है.

- केशव राम सिंघल

(लेखक राजनीति विज्ञान में स्नातकोत्तर हैं और 1975 में श्रीलंका की यात्रा कर चुके हैं.)

Monday, April 15, 2013

श्रीलंका में प्रेस की आजादी




मैंने अपने पिछले एक लेख में लिखा कि श्रीलंका में पत्रकार और मीडिया स्वतंत्र नहीं हैं. पत्रकार डरे हुए हैं, ‍तमिल समाचारपत्र कार्यालय पर बार-बार हमले हो रहे हैं. श्रीलंका में ‍तमिल टीवी की न्यूज रीडर सुश्री रथिमोहन लोकिनि, जो फिलहाल ‍तमिल शरणार्थी के रूप में दुबई में है, अंतरराष्ट्रीय समुदाय से निवेदन कर रहीं हैं कि उन्हें वापिस श्रीलंका नहीं भेजा जाए. उसे डर है कि श्रीलंका में उसे यातना सहनी पड़ सकती है या उसे मार दिया जाए. दुनियाभर में पत्रकारों के बचाव के लिए बनी समिति 'कमिटी टू प्रोटेक्ट जर्नेलिस्त्स' (Committee to Protect Journalists) ने तमिल टीवी की न्यूज रीडर सुश्री रथिमोहन लोकिनि के बारे में संकेत दिया है कि उसे जबर्दस्ती वापिस श्रीलंका नहीं भेजा जायेगा. यह बड़ी राहत की बात है.

अभी हाल ही में तीन हथियारबंद लोगों ने एक ‍तमिल भाषा के अखबार 'उथयन' की छपाई मशीन को आग लगा दी. यह इस अखबार के कार्यालय पर इस वर्ष में पाँचवाँ हमला है और संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद द्वारा 21 मार्च 2013 को मानवाधिकार उल्लंघन का प्रस्ताव पारित होने के बाद यह दूसरा हमला है. इस सम्बन्ध में 'उथयन' के संपादक थेवनायागम प्रेमनाथ ने बताया कि हेलमेट पहने तीन लोगों ने मुद्रण अनुभाग में 'उथयन' के कर्मचारियों को धमकी दी और मुख्य छपाई मशीन को आग लगा दी. यहाँ उल्लेखनीय है कि यह अखबार श्रीलंका के उत्तरी भाग जाफ्ना में प्रमुख अखबार है. इससे पहले भी एक अज्ञात समूह के लोगों ने उथयन कार्यालय पर हमला किया था और पाँच कर्मचारियों को घायल कर दिया था. असल में देखा जाए तो पिछले कई हमलों के बाद उचित कार्रवाई करने की श्रीलंका सरकार की विफलता के परिणामस्वरूप छपाई मशीन को आग लगाने की घटना हुई और अखबार के खिलाफ हिंसा जारी है. इस सम्बन्ध में पुलिस प्रवक्ता कहते हैं कि जाँच चल रही है और रक्षा मंत्रालय से जुड़े राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए मीडिया केन्द्र के महानिदेशक यह कहकर अपना पल्ला झाड़ रहे हैं कि प्रारंभिक जाँच से यह संकेत मिला कि यह हमला सरकार की छवि खराब करने के लिए अंदरूनी कार्य है. इससे एक बात साफ़ दिख रही है कि श्रीलंका के जाफना क्षेत्र में हिंसा की घटनाएँ श्रीलंकाई तमिल वोटरों को डराने का एक तरीका हो सकता है क्योंकि अधिकतर श्रीलंकाई ‍तमिल वोटर सरकार के विरोधी पक्ष के समर्थक हैं.

किसी भी लोकतांत्रिक देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और प्रेस की आजादी अत्यन्त जरुरी है और इसके लिए पत्रकारों की सुरक्षा करना सरकार का दायित्व होता है पर श्रीलंका सरकार इस ओर कोई सकारात्मक कदम नहीं उठा रही है. यह चिन्ता की बात है. भय के माहौल से बचने के लिए, दूसरे देशों में शरण चाहने वाले श्रीलंकाई तमिलों की संख्या बढ़ रही है और अनिश्चित भविष्य से बाध्य श्रीलंकाई ‍तमिल किसी भी तरह, यहाँ तक कि समुद्र में मुश्किल से चलने वाली नौकाओं, से श्रीलंका से दूसरे देशों में पलायन कर चुके हैं और कर रहे हैं. अब यह बहुत ही जरुरी है कि अंतरराष्ट्रीय दवाब बनाकर श्रीलंका को लोकतांत्रिक तरीके से काम करने लिए प्रेरित किया जाय, ताकि भय का माहौल समाप्त हो और श्रीलंका से पलायन रुके.

- केशव राम सिंघल

(लेखक राजनीति विज्ञान में स्नातकोत्तर हैं और 1975 में श्रीलंका की यात्रा कर चुके हैं.)

Sunday, April 14, 2013

बुजुर्गो के प्रति उदासीन परिजन और सरकार


SUNDAY, MARCH 3, 2013



पिछले दिनों मैं एक पत्रिका पढ़ रहा था, जिसमें एक बुजुर्ग पाठक ने अपंनी व्यथा के साथ एक सोच सामने रखी - "मैं 83 साल का बूढ़ा सरकार से पेंशन लेने वाला व्यक्ति हूँ ! मेरा अब नए साल से क्या मतलब रह गया है?परिवार में सब अपनी चलाते हैं. सबकी निगाहें मेरी पेंशन पर है. इन सबके बाद भी मैं नए साल को नए ढंग से देखता हूँ. नए साल में भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम चलनी चाहिये, वरना देश गर्त में चला जायेगा." यह व्यथा हजारों-लाखों वरिष्ठ नागरिकों की व्यथा है.

विश्वं के सभी धर्मो और संप्रदायों में माता-पिता को बहुत ही उच्च सम्मान और दर्जा दिया गया है और भगवान की तुलना हमारे यहाँ तो माता-पिता से की गयी है, तभी तो श्लोक है - "त्वमेव माता च पिता त्वमेव". अर्थात, हे भगवान ! आप ही मेरे माता और पिता हो. इतना सम्मानजनक स्थान होने के बावजूद भी बुजुर्ग माता-पिता को दु:ख भोगना पढ़ता है, उपेक्षा का शिकार होना पड़ता है.

ऐसे भी बहुत से मामले हैं जिनमें वरिष्ठ नागरिकों का उनके बेटे-बेटी ध्यान नहीं रखते और अकसर इस ओर एक दूसरे पर जिम्मेदारी डालने का प्रयास करते हैं. इस सन्दर्भ में राजस्थान हाईकोर्ट का फैसला बहुत ही महत्वपूर्ण है. 10 जनवरी 2011 को राजस्थान हाईकोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए एक बुजुर्ग पिता की देखभाल सभी बेटे-बेटियों को बराबर की सौपी. तीनों बेटों और पाँचो विवाहित बेटियों को पिता के भरण-पोषण व इलाज के अलावा पाँच-पाँच सौ रुपये मासिक देने का निर्देश दिया. निश्चित रूप से राजस्थान हाईकोर्ट का यह फैसला असहाय वरिष्ठ नागरिकों के हित में है और समाज में एक अहम् बदलाव लाने का संकेत भी है.


जेलों में बंद बुजुर्ग कैदी

जेलों में बंद बुजुर्ग कैदियों की संख्या जेल-प्रशासन और कैदियों दोनों को भारी पड़ रही है. क्षमता से अधिक कैदियों की मौजूदगी से जैलेन प्रभावित हो रहीं हैं और बुजुर्ग कैदी महज इसलिए सलाखों के पीछे दिन कैट रहे हैं क्योंकि इनको छोड़ने में कभी सरकारी नियम-कायदे आड़े आते हैं तो कभी इन कैदियों के परिजनों की उपेक्षा. कई मामलों में तो बुजुर्ग कैदी सजा पुरी होने के बाद भी बंद हैं क्योंकि नियमानुसार वे जमानतदार की व्यवस्था नहीं कर पाते हैं. बुजुर्ग कैदियों को आए दिन कोई न कोई बीमारी घेरे रहती है और ऐसे में जेल अस्पताल में इनका इलाज होता है. अनेक कठिनाईयों का बुजुर्ग कैदियों और जेल अधिकारियों को सामना करना पड़ता है. नियमों के तहत आजीवन सजा काट रहे किसी कैदी को जेल में चौदह साल हो चुके हों तो उसे छोड़ा जां सकता है, लेकिन न तो सरकार और न ही जेल प्रशासन इस ओर दिलचस्पी लेता है. जेलों में बंद ऐसे हजारों कैदी हैं जो बिना सहारे चल तक नहीं सकते. नियमों के मुताबिक रिहाई के हक़दार ऐसे कैदी प्रशासनिक और सरकारी उपेक्षा के चलते जेलों में बंद हैं.

बुजुर्गो के प्रति उदासीन हमारी सरकार

जन्मदर के साथ-साथ मृत्युदर में गिरावट के चलते दुनिया की आबादी में बुज़ुर्गों की आबादी क्ा अनुपात बढ़ रहा है. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस पर चर्चा हुई और इस सम्बन्ध में सन् 2012 के अंत में एक प्रस्ताव संयुक्त संयुक्त राष्ट्र महासभा ने पारित किया, जिसमें बुज़ुर्गों के अधिकारो और उनकी गरिमा की रक्षा के लिए व्यापक और समग्र अंतरराष्ट्रीय कानूनी उपायों को बढ़ावा देने की बात कही गयी है. गौरतलब है कि इस प्रस्ताव के पक्ष में 54 देशों ने वोट दिया, 5 देशों ने विरोध में मत दिया, भारत समेत 118 देशों ने मतदान में भाग नहीं लिया और 16 देश से अनुपस्थित रहे. बुजुर्गों के अधिकारों और उनकी गरिमा की रक्षा के लिए व्यापक अंतरराष्ट्रीय कानूनी उपायों को लेकर संयुक्त राष्ट्र जैसी अंतरराष्ट्रीय संस्था की पहल के प्रति भारत सरकार उदासीन क्यों रही, यह समझना मुश्किल है. क्यों भारत सरकार ने अपने अनिर्णय का परिचय दिया. यहाँ यह उल्लेखनीय है कि बांग्लादेश, श्रीलंका जैसे छोटे देशों ने भी प्रस्ताव के पक्ष में मत दिया. क्या हमारी सरकार सिर्फ़ इसलिए अनिर्णय की स्थिति में रही क्योंकि अमेरिका प्रस्ताव के पक्ष में नहीं था और ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी और चीन जैसे देशों ने मतदान में हिस्सा नहीं लिया.

बुजुर्गों के मसलों पर सरकार की उदासीनता वाकई चिन्ता की बात है. दु:ख इस बात का है कि समाज कल्याण से जुड़े मंत्रालयों में प्राय: पिटे हुए नौकरशाह बैठें होते हैं, जो ना तो समय पर निर्देश जारी करते हैं और ना ही बुजुर्गों के प्रति सकारात्मक सोच रखते हैं.

बुजुर्गों की आबादी

संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष नमक संगठन के अनुमानों के अनुसार -
- वर्तमान में केवल जापान ही एक ऐसा देश है जहाँ बुजुर्गों की आबादी 30 प्रतिशत है.
- वर्ष 2050 तक 64 देशों में बुजुर्गों की आबादी 30 प्रतिशत हो जायेगी.
- वर्ष 2050 तक दुनियान में बुजुर्गों की अस्सी प्रतिशत आबादी विकासशील देशों में बसी होगी.
- भारत में 2011 में बुजुर्गों की आबादी 10 करोड थी, जो 2050 में 32 करोड़ से ज्यादा हो जाने का अनुमान है.
- भारत में बुजुर्गों की मौजूदा आबादी में महिलाओं का अनुपात ज्यादा है.
- भारत में बुजुर्गों की एक तिहाई आबादी अकेले रहती है.
- भारत में क़रीब 90 प्रतिशत बुजुर्गों को अपनी रोजी-रोटी के लिए कोई-न-कोई कम करना पड़ता है.
- भारत सरकार के केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के एक अध्ययन के मुताबिक 25 प्रतिशत बुजुर्ग अवसाद से. एक तिहाई गठिया रोग से, 20 प्रतिशत बुजुर्ग कम सुनने की व्याधि से पीड़ित ठाईं. शहरों में आधे और गाँवों में एक तिहाई बुजुर्ग उच्च रक्तचाप से पीड़ित थें. गाँवों में 10 प्रतिशत और शहरों में 40 प्रतिशत बुजुर्ग मधुमेह से पीड़ित थे.


बुजुर्गों को सरकारी पेंशन - सरकारी खानापूर्ति

भारत सरकार का ग्रामीण विकास मंत्रालय गरीब वृद्ध लोगों को 200 से 500 रुपये के बीच मासिक पेंशन देता है, जिसे सरकारी खानापूर्ति ही कहा जां सकता है.

क्या किया जाना चाहिए?

- गरीब वृद्ध व्यक्तियों की सरकारी पेंशन राशि को बढ़ाया जाना कहाहिये.
- बुजुर्गों के लिए स्वास्थ्य सेवाओं को मज़बूत किया जाना चाहिये.
- 80 प्रतिशत बुजुर्ग अपने कानूनी अधिकारों को नहीं जानते हैं, अत: जागरूकता बढ़ाने की जरूरत है.
- सरकार को जेलों में बंद बुजुर्ग कैदियों की रिहाई के लिए कदम उठाने चाहिये.
- सरकार को बुजुर्गों के प्रति अपनी उदासीनता को खत्म करना चाहिये.

- केशव राम सिंघल

Saturday, April 13, 2013

श्रीलंका की स्थिरता के लिए अन्तत: जरुरी




श्रीलंका के रक्षा सचिव गोत्बया राजपक्षे श्रीलंका में ‍तमिल समस्या के लिए मुख्य रूप से भारत को दोषी ठहराते हैं. उनका मानना है कि श्रीलंका में 30 साल तक ‍तमिल अलगाववादियों ने जो युद्ध घसीटा, उसके लिए भारत दोषी है. उनका कहना है कि श्रीलंका में आंतकवाद पैदा करने के लिए भारत कभी भी अपनी जिम्मेदारी से मुक्त नहीं हो सकता. उनके अनुसार भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी की भूलों में से एक भूल श्रीलंकाई ‍तमिल युवाओं को हथियार देना था. गोत्बया राजपक्षे कहते हैं कि जो संघर्ष के अन्तिम दिनों के दौरान कथित अत्याचार के लिए श्रीलंका पर जवाबदेही की माँग करते हैं, वे श्रीलंका में आतंकवाद की उत्पत्ति पर चुप हैं. साथ ही वे इस माँग को सामने रखते हैं अंतरराष्ट्रीय समुदाय को भारतीय हस्तक्षेप के साथ शुरू हुए मुद्दे की व्यापक जाँच पर विचार करना चाहिये. वे श्रीलंका में मानव अधिकारों के हनन पर कहते है कि भारत को श्रीलंका पर अपनी उँगली उठाने से पूर्व भारत, विशेषकर कश्मीर, में मानव अधिकारों के उल्लंघन को ठीक करना चाहिये.


भारत पर आरोप लगाकर श्रीलंका सरकार बचना चाहती है और उन्हें यह रास्ता बहुत ही आसान लगता है. लेकिन भारत के राज्य मन्त्री वी नारायनसामी ने श्रीलंका के रक्षा सचिव के दावे को नकारते हुए कहा कि यह अस्वीकार्य है कि श्रीलंका में आतंकवाद पैदा करने के लिए भारत जिम्मेदार था. उन्होंने कहा कि श्रीलंका में आतंकवाद के लिए श्रीलंका जिम्मेदार है. तमिलों ने आतंकवाद का रास्ता इसलिए चुना क्योंकि श्रीलंका ने उनके अधिकारों को इनकार कर दिया था. उन्होंने यह भी कहा कि भारत ने विश्व में कहीं भी आतंकवाद गतिविधियों का किसी तरह का समर्थन नहीं किया. उन्होंने कहा कि जहाँ तक भारत का सम्बन्ध है हमारे पूर्व प्रधानमंत्रियों इंदिरा और राजीव ने तमिलों का समर्थन किया. हमने राजीव (जिनकी लिट्टे के सदस्यों ने हत्या कर दी) को खो दिया, जिन्होंने तमिलों की सहायता के लिए भारतीय शान्ति सेना भेजी. राजपक्षे का बयान अस्वीकार्य है. श्रीलंका आतंकवाद के लिए ख़ुद जिम्मेदार है. तमिलों ने आतंकवाद इसलिए अपनाया क्योंकि उनके अधिकारों से उन्हें वंचित रखा गया था. तमिलों की रक्षा करना भारत का कर्तव्य है, वे जहाँ भी हों. राज्य मन्त्री ने यह भी कहा कि संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद में भारत ने श्रीलंकाई सेना द्वारा कथित युद्ध अपराधों के लिए स्वतंत्र और विश्वसनीय जाँच के लिए दवाब डाला था.


यदि उपर्युक्त तथ्यों का विश्लेषण किया जाए तो यह बात सामने आती है कि श्रीलंका सरकार श्रीलंका द्वारा किए मानवाधिकार उल्लंघन से इनकार कर श्रीलंका में आतंकवाद के लिए भारत को जिम्मेदार मानती है. सबसे दु:खद बात यह है कि संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद द्वारा पारित प्रस्ताव के बावजूद श्रीलंका सरकार पर कोई असर लगता नहीं दिख रहा. श्रीलंका में पत्रकार और मीडिया भी स्वतंत्र नहीं हैं. पत्रकार डरे हुए हैं, ‍तमिल समाचारपत्र कार्यालय पर बार-बार हमले हो रहे हैं. श्रीलंका में ‍तमिल टीवी की न्यूज रीडर सुश्री रथिमोहन लोकिनि, जो फिलहाल ‍तमिल शरणार्थी के रूप में दुबई में है, अंतरराष्ट्रीय समुदाय से निवेदन कर रहीं हैं कि उन्हें वापिस श्रीलंका नहीं भेजा जाए. उसे डर है कि श्रीलंका में उसे यातना सहनी पड़ सकती है या उसे मार दिया जाए.


श्रीलंका में स्थितियाँ तब तक नहीं सुधर सकती जब तक श्रीलंका सरकार अपने देश में सभी धर्मों के नागरिकों को सम्मान और गरिमा से जीवन बिताने का दायित्व सही अर्थों में नहीं निभायेगी. यदि श्रीलंका दु:ख और पीड़ा से बचना चाहता है तो श्रीलंका को युद्ध अपराधों के लिए युद्ध के बाद सुलह के लिए गंभीर होने की जरूरत है और यही श्रीलंका की स्थिरता के लिए अन्तत: जरुरी है.


- केशव राम सिंघल
(लेखक राजनीति विज्ञान में स्नातकोत्तर हैं और 1975 में श्रीलंका की यात्रा कर चुके हैं.)

Thursday, April 11, 2013

श्रीलंका सम्बन्धित लेख



श्रीलंकाई मुद्दा - सामरिक और राजनैतिक मज़बूरियों के साथ भारत सरकार
by Keshav Ram Singhal (Notes) on Wednesday, 20 March 2013


'श्रीलंकन ‍तमिल' या 'सीलोन ‍तमिल' व्यक्ति ‍तमिल भाषा में 'ऐलम तमिल' के रूप में जाने जाते हैं. यह ‍तमिल लोगो का वह् समूह है, जो दक्षिण एशिया के श्रीलंका द्वीप में रहते हैं. श्रीलंका इतिहास के अनुसार 'श्रीलंकन ‍तमिलों' का इतिहास बहुत पुराना है और वे वहाँ दो शताब्दी ईसा पूर्व से रह रहे हैं. वर्तमान में अधिकांश श्रीलंकन ‍तमिलों का दावा है कि वे जाफना साम्राज्य के वंशज हैं. जाफना साम्राज्य इस द्वीप के उत्तर में स्थित है. श्रीलंका के उत्तरीय प्रदेश में श्री लंकन ‍तमिलों की बहुलता है, अच्छी संख्या में ये पूर्वी प्रदेश में भी रहते हैं, फिर भी श्रीलंका के बाकी हिस्सों में जनसंख्या के हिसाब से अल्पसंख्यक ही हैं.

श्रीलंका ने ब्रिटेन से 1948 में स्वतंत्रता हासिल की, और तभी से बहुसंख्यक सिंहली और अल्पसंख्यक ऐलम ‍तमिलों के बीच सम्बन्ध तनावपूर्ण रहे हैं श्रीलंकन ‍तमिलों में अधिकांश हिंदु और उल्लेखनीय ईसाई आबादी है. बढ़ते जातीय और राजनैतिक तनाव के साथ 1956, 1958, 1977, 1981 और 1983 में जातीय दंगे और नरसंहार हुए और इन्ही सब के बीच तमिलों के लिए स्वंत्रतता की माँग ज़ोरों से उठने लगी. इसके बाद हुए श्रीलंकाई गृह युद्ध का परिणाम 70,000 लोगों का मारे जाना और हजारों लोगों का लापता होना रहा. वर्तमान में श्रीलंका तमिलों की एक तिहाई आबादी श्रीलंका के बाहर रहने को मजबूर है, जिसमें से अधिकांश गृह युद्ध प्रारंभ होने के बाद लगभग आठ लाख से अधिक तमिलों को भारत, कनाडा, आस्ट्रेलिया और यूरोपीय देशों में रहने को मजबूर होना पडा़ है. 2009 के अन्तिम सप्ताहों में ‍तमिल विद्रोहियों पर सैन्य जीत के फलस्वरूप अलग-अलग अनुमानों के अनुसार लगभग 10,000 से 40,000 मारे गए. संयुक्त राष्ट्र के अनुसार श्रीलंका सेना और ‍तमिल टाइगर्स ने नागरिकों को मानव-ढाल के रूप में उपयोग किया, इस प्रकार अनेक युद्ध अपराध हुए. लेकिन गृह युद्ध के अंत की स्थिति में भी सुधार नहीं हुया है और प्रेस की स्वंत्रतता अभी भी बहाल नहीं है. श्रीलंकाई ‍तमिल कनाडा और आस्ट्रेलिया देशों में शरण लेने के लिए मजबूर हैं. प्रवासन के लिए अंतरराष्ट्रीय संगठन और आस्ट्रेलिया सरकार ने ‍तमिल शरणार्थियों को आर्थिक प्रवासियों के रूप घोषणा की है. उधर कनाडा ने अपने शरणार्थी प्रणाली कार्यक्रम पर नियंत्रण कठोर कर दिया है.

22 मार्च 2013 को संयुक्त राष्ट्र मानव अधिकार कौंसिल (यूएनएचआरसी - UNHRC) अमेरिका द्वारा प्रस्तावित श्रीलंकाई सेना द्वारा की गई ज्यादतियो के आरोपो पर मतदान करेंगे.

भारत में भी राजनैतिक माहौल गर्मा गया है, देखना है कि भारत सरकार का रुख क्या रहता है. भारत सरकार को सामरिक और राजनैतिक मज़बूरियों के साथ मानव अधिकारों के संतुलन के लिए उचित निर्णय लेना होगा और यह ध्यान भी रखना होगा कि श्रीलंका से हमारे रिश्ते खराब ना हों. आगे का कार्य बहुत ही महत्वपूर्ण है कि एक ऐसा स्वीकार्य समाधान आम सहमति से तैयार किया जाय, जिसे श्रीलंका सरकार लागू करने के लिए तैयार और सक्षम हो. यह बहुत ही मुश्किल कार्य है. अन्तिम मसौदा जो भी हो भारत सरकार को श्रीलंका की संप्रभुता की पुष्टि के साथ प्रस्ताव के समर्थन में वोट करना होगा, ऐसी संभावना लगती है. देखना है कि आगे क्या होता है.

संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद और श्रीलंका
by Keshav Ram Singhal (Notes) on Friday, 22 March 2013

मैंने अपने पिछले लेख 'श्रीलंकाई मुद्दा - सामरिक और राजनैतिक मज़बूरियों के साथ भारत सरकार' में लिखा भी था कि भारत में भी राजनैतिक माहौल गर्मा गया है, देखना है कि भारत सरकार का रुख क्या रहता है. भारत सरकार को सामरिक और राजनैतिक मज़बूरियों के साथ मानव अधिकारों के संतुलन के लिए उचित निर्णय लेना होगा और यह ध्यान भी रखना होगा कि श्रीलंका से हमारे रिश्ते खराब ना हों. आगे का कार्य बहुत ही महत्वपूर्ण है कि एक ऐसा स्वीकार्य समाधान आम सहमति से तैयार किया जाय, जिसे श्रीलंका सरकार लागू करने के लिए तैयार और सक्षम हो. यह बहुत ही मुश्किल कार्य है. अन्तिम मसौदा जो भी हो भारत सरकार को श्रीलंका की संप्रभुता की पुष्टि के साथ प्रस्ताव के समर्थन में वोट करना होगा, ऐसी संभावना लगती है.

जैसी आशा थी भारत ने अमरीकी प्रस्ताव के समर्थन में वोट दिया, पर जैसा कि एडीएमके और डीएमके राजनैतिक दलों ने माँग की थी कि भारत को अमेरिकी प्रस्ताव में संशोधन करते हुए उसे और सख्त बनाना चाहिये, भारत ने ऐसा कोई कदम नहीं उठाया. अमरीका नहीं चाहता था कि उसके प्रस्ताव को कठोर बनाया जाए, क्योंकि उसे लगता था कि ऐसा करने से अन्तरराष्ट्रीय समुदाय का सहयोग कम हो सकता था और प्रस्ताव पारित कराने में परेशानी हो सकती थी. संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार कौंसिल ने गुरुवार को अमेरिकी समर्थित संकल्प प्रस्ताव पारित कर दिया. भारत सरकार ने श्रीलंका में अनावश्यक दखलंदाजी से बचने के लिए संशोधन प्रस्तुत नहीं किया. भारत सरकार का मानना है कि भारत एक पड़ोसी देश होने के कारण श्रीलंका में होने वाली घटनाओं से पूरी तरह अछूता नहीं रह सकता और श्रीलंका सरकार पर लग रहे मानवाधिकार उल्लंघन के आरोपों की निष्पक्ष और स्वतन्त्र जाँच कराये जाने की आवश्यकता बताई. ‍संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार तमिल अलगाववादियों के साथ गृह-युद्ध में दसियो हजार लोगों की मौत हो गयी. संयुक्त राष्ट्र पैनल का यह मानना है कि गृह-युद्ध में दोनों पक्षों ने युद्ध-अपराध और मानवाधिकारों के विरुद्ध अपराध किए हैं. अब इस बात की अत्यन्त जरूरत है कि श्रीलंका और उसके अल्पसंख्यक तमिलों के बीच की खाई को समाप्त किया जाए. श्रीलंका सरकार के प्रतिनिधि ने प्रस्ताव का विरोध किया और कहा कि श्रीलंका सरकार हमेशा मानवाधिकार परिषद के साथ मिलकर काम करती रही है. वे ऐसा कुछ भी नहीं चाहते है जो उन्हें गले के नीचे तक मजबूर करे. आपसी सम्मान की आवश्यकता है. श्रीलंका सरकार ने तर्क देते हुए कहा कि उसने संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद की सिफारिशों को अपने स्तर पर लागू किया है और कर रहा है. पर आलोचकों का कहना है कि श्रीलंका द्वारा संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद की सिफारिशों को धीमी गति से लागू किया गया.

संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद के पारित प्रस्ताव में ऐसी कोई बात नहीं दिखती जिसे मानने में श्रीलंका को अब आपत्ति होनी चाहिए. अब श्रीलंका सरकार के लिए आत्म-मंथन करने का समय है और उसे सरकार और अल्पसंख्यक तमिलों के बीच की खाई को समाप्त कराने का सार्थक प्रयास करना चाहिये.


इस सप्ताह श्रीलंका और सम्बंधित मुद्दे
by Keshav Ram Singhal (Notes) on Saturday, 30 March 2013

तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता के जबरदस्त दबाव के चलते राज्य में होने वाले आईपीएल मैचों में श्रीलंकाई खिलाड़ियों को खेलने से रोक दिया है। आईपीएल की गवर्निंग काउंसिल ने सभी नौ फ्रेंचाइजी को चेन्नई में श्रीलंकाई खिलाड़ियों को नहीं खिलाने को कह दिया। यह फैसला ऐसे वक्त हुआ है, जबकि आईपीएल-6 में अब सिर्फ एक सप्ताह का वक्त बाकी है। 3 अप्रैल को शुरू होने जा रहे इस टूर्नामेंट में 13 श्रीलंकाई खिलाड़ी हिस्सा ले रहे हैं। इनमें से दो श्रीलंकाई खिलाड़ी अपनी टीमों के कप्तान हैं।


तमिलनाडु विधानसभा में श्रीलंका से सम्बंधित मुद्दे इस सप्ताह छाये रहे। श्रीलंकाई नौसैनिकों की ओर से भारतीय मछुआरों पर हमले की बढ़ती वारदात पर चिंता जताते हुए तमिलनाडु सरकार ने मंगलवार 26 मार्च 2013 को केंद्र से आग्रह किया है कि इस पर काबू के लिए वह राजनयिक पहल करे। इसके साथ ही तमिलनाडु राज्य सरकार ने केन्द्र से मांग की है कि 1974 के उस समझौते को खत्म कर दिया जाए जिसके तहत कच्चातीवु द्वीप श्रीलंका को दे दिया गया था। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि 1974 तक इस द्वीप के नियंत्रण पर विवाद रहा. अंग्रेजों के शासन के दौरान इस द्वीप का नियंत्रण दोनों देशों की सरकारें करती थी, क्योंकि दोनों देश अंग्रेजों के शासन के ही अधीन थे। 1974 में भारत सरकार द्वारा इस द्वीप को भारत के तमिलनाडु राज्य से श्रीलंका सरकार को सौप दिया गया। तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जे जयललिता ने तमिलनाडु विधानसभा में एक ध्यानाकर्षण प्रस्ताव पर हुयी चर्चा का जवाब देते हुए कहा कि अगर यूपीए सरकार मांग को पूरा करने में नाकाम रहती है तो उनकी सरकार कानूनी विकल्प पर विचार करेगी। उन्होंने हमले जारी रहने की निंदा की और कहा कि कच्चातीवु दे दिए जाने के कारण श्रीलंकाई नौसैनिकों की ओर से भारतीय मछुआरों पर हमले हो रहे हैं। उन्होंने कहा कि श्रीलंका पारंपरिक अधिकारों से जुड़े समझौते के कई प्रावधानों को मान ही नहीं रहा है। 'बेरूबारी' मामले में सुप्रीम कोर्ट के 1960 के फैसले का जिक्र करते हुए जयललिता ने कहा कि बेरूबारी तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान को दिए जाने के खिलाफ उस समय की पश्चिम बंगाल सरकार ने अदालत का दरवाजा खटखटाया था। सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया था कि संवैधानिक संशोधनों के अलावा संसद के दोनों सदनों से मंजूरी के बाद ही ऐसे हस्तांतरण हो सकते हैं। जयललिता ने आरोप लगाया कि डीएमके चीफ एम करुणानिधि ने मुख्यमंत्री के रूप में 1974 में इसका अनुसरण किया होता तो कच्चातीवु श्रीलंका को नहीं सौंपा जाता।


श्रीलंका में तमिलों की समस्या को लेकर भारत में राजनीति तेज हो गई है। इस सम्बन्ध में तमिलनाडु विधानसभा में बुधवार 27 मार्च 2013 को एक प्रस्ताव लाया गया। इस प्रस्ताव में भारत सरकार से संयुक्त राष्ट्र के मंच पर श्रीलंका में अलग तमिल ईलम राज्य बनाने के उद्देश्य से एक प्रस्ताव लाकर जनमत संग्रह कराने की मांग की गई है । इस जनमत संग्रह में श्रीलंका में रह रहे तमिल और दूसरे देशों में निवास कर रहे श्रीलंकाई मूल के अन्य तमिलों को भी शामिल करने की मांग की गई। इसके अलावा भारत सरकार से श्रीलंका को मित्र मुल्क का दर्जा बंद करने और लिट्टे के खिलाफ युद्ध अपराधों के लिए अंतरराष्ट्रीय जांच बिठाए जाने की अपील की गई।प्रस्ताव में यह भी कहा गया कि युद्ध अपराधों के लिए जिम्मेदार लोगों के खिलाफ एक अंतरराष्ट्रीय अदालत में मुकदमा चलाया जाना चाहिए। तमिलनाडु मुख्यमंत्री जे जयललिता ने विधानसभा में यह प्रस्ताव पेश किया। इस दौरान जयललिता ने संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद में अमेरिका द्वारा श्रीलंका के खिलाफ लाए गए ताजा प्रस्ताव की भी चर्चा की। उधर श्रीलंका के राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे ने कहा कि स्‍थानीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर श्रीलंका देश की शांति बिगाड़ने के प्रयास किए जा रहे हैं। महिंदा राजपक्षे ने कहा कि देश की शांति बनाए रखना हर नागरिक का कर्तव्य है और वे किसी भी अफवाह पर ध्यान न दें। उन्होंने कहा कि श्रीलंका सरकार ने हमेशा आम लोगों की भलाई के लिए ही कदम उठाए हैं। अब देखना है कि हमारे देश की केंद्र सरकार क्या कदम उठाती है। अभी-अभी मिले समाचार के अनुसार हमारे देश के विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद ने तमिलनाडु सरकार द्वारा पारित प्रस्तावों को खारिज कर दिया है और कहा है कि श्रीलंका एक मित्र पडौसी देश है। इस प्रकार भारत सरकार ने श्रीलंका में अलग तमिल ईलम राज्य बनाने के लिए जनमत संग्रह कराने के प्रस्ताव को खारिज कर दिया है।


एक अन्य समाचार के अनुसार श्रीलंका में जातीय हमले भी देखने को मिल रहे है. श्रीलंका की राजधानी कोलंबो में बौद्ध भिक्षुओं के नेतृत्व में सैंकड़ों की संख्या में लोगों ने एक मुस्लिम व्यक्ति की कपड़े की दुकान पर हमला बोल दिया। इससे भविष्य में मुसलमानों और सिंहलियों के बीच तनाव पैदा हो सकता है। श्रीलंका में मुस्लिम विरोधी लहर भी यकीनन चिंता का विषय है।

श्रीलंका में मानवाधिकार उल्लंघन
by Keshav Ram Singhal (Notes) on Friday, 5 April 2013


श्रीलंका में जातीय दंगों के समाचार अकसर सुनने को मिल जाते हैं. देश में सिंहली और ऐलम ‍तमिल के बीच विवाद के फलस्वरूप अभी हाल ही में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद में प्रस्ताव पारित हुया. इसके अलावा श्रीलंका में मुस्लिम विरोधी लहर भी यकीनन चिन्ता की बात है. पिछलेदिनों श्रीलंका की राजधानी कोलंबो में बौद्ध भिक्षुओं द्वारा एक मुस्लिम व्यक्ति की दुकान पर हमला बोल दिया गया. हालांकि श्रीलंका के राष्ट्रपति महिन्द्रा राजपक्षे ने कहा है कि उनकी सरकार देश में नस्लवाद या धार्मिक उग्रवाद की अनुमति नहीं देगी और साथ ही उन्होंने बौद्ध समुदाय के लोगों को सलाह दी कि उन्हें दूसरों के अधिकारों की रक्षा करनी चाहिये. उन्होंने एक धार्मिक सभा में कहा कि श्रीलंका एक लोकतांत्रिक देश है और गैर-बौद्धों के अधिकार और स्वंतत्रता बौद्धों के समान ही है. यह बौद्धों की जिम्मेदारी है और यह उनके लिए अनुकरणीय है कि वे दूसरों केअधिकारों की रक्षा करें. उनका यह बयान मुस्लिम समुदाय पर हमले के समाचार के बाद आया.

बौद्ध धर्म के एक विशेषज्ञ राफैल लिओगिर के अनुसार बौद्ध समुदाय के लोगों का मानना है कि श्रीलंका की पूरी पहचान बौद्ध है. बौद्ध सिर्फ़ एक धर्म नहीं है, यह एक गहरी सांस्कृतिक पहचान है, एक राष्ट्रीय पहचान है.कट्टर बौद्ध भिक्षु मुसलमानों को आक्रमणकारी मानते हैं और उनका मानना है कि मुसलमानों को रोका जाना चाहिये. यह आम धारणा है कि बौद्ध धर्म, शांति का धर्म है। परन्तु सच यह है कि बौद्ध अनुयायियों ने अपने राजनैतिक हितों की पूर्ति के लिये धर्म के नाम पर हिंसा की है।

श्रीलंका में सिंहली-मुस्लिम विवाद भी अब चिन्ता की बात है, क्योंकि श्रीलंका में मुस्लिम अल्पसंख्यक जरूर हैं, पर उनकी जनसंख्या क़रीब 9 प्रतिशत है और किसी भी लोकतांत्रिक देश में अल्पसंख्यकों के साथ दूसरे दर्जे का व्यवहार नहीं होना चाहिये.

पटना में आयोजित नवें काँग्रेस के दौरान दिनांक 2 अप्रैल 2013 को सीपीआई (एमएल) के महासचिव दीपांकर भत्ताचार्य ने तमिलों के नरसंहार युद्ध अभियान के लिए श्रीलंका की निन्दा की है. ‍तमिल भारत के फ़िल्म सितारों, जिनमें सुपरस्टार रजनीकांत भी शामिल हैं, ने एक दिन का सांकेतिक उपवास रखकर यह संदेश दिया है कि पड़ोसी श्रीलंका में तमिलों के साथ दुराचार और युद्धकालीन अपराधों के लिए अंतरराष्ट्रीय जाँच की जानी चाहिये. तमिलनाडु में यह भावनात्मक मुद्दा बन गया है.

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हुई एक जाँच से ऐसे संकेत मिलें हैंकि श्रीलंका की सिंहली बहुल सरकार ने युद्ध के अन्तिम महीनों में क़रीब 40,000 ‍तमिल लोगों को मौत के घाट उतार दिया. 2009 में श्रीलंका सरकार ने तमिल विद्रोहियों के आन्दोलन को कुचल दिया था। उसके बाद से अब तक श्रीलंका सरकार ने यह कभी स्वीकार नहीं किया कि तमिलों के साथ कोई अत्याचार हुआ था। आज भी श्रीलंका के उत्तर और पूर्व में रहने वाले तमिलों को श्रीलंका सेना के नियंत्रण में जीवन जीना पड़ रहा है। यह बहुत ही चिन्ता की बात है.


लेकिन दूसरी ओर मीडिया से प्राप्त समाचार से ज्ञात हुया कि श्रीलंका के मुख्य बंदरगाह पर कार्यरत कामगार यूनियनों ने भारत के तमिलनाडु राज्यसे होने वाले आयात-निर्यात, तकरीबन दो बिलियन डॉलर, को रोकने की धमकी दी है. उनका यह कदम तमिलनाडु की मुख्य-मन्त्री जयललिता और अन्य राजनैतिक नेताओं के लिए चेतावनी है, जो श्रीलंका सरकार के मानवाधिकार मामलों के लिए भारत सरकार को कठोर कदम उठाने के लिए प्रेरित करते हैं.यह अनुमान किया जाता है कि श्रीलंका-भारत के बीच कुल आयात-निर्यात लगभग पाँच बिलियन डॉलर का है, जिसका 40 प्रतिशत आयात-निर्यात तमिलनाडु से होता है. यहाँ ध्यान देने की बात यह है कि कामगार यूनियन के पदाधिकारी सिंहली हैं, जो श्रीलंका सरकार की नीतियों का समर्थन ही करते हैं.

बुधवार दिनांक 3 अप्रैल 2013 को उत्तरी श्रीलंका में ‍तमिल समाचार-पत्र 'उथयन' के कार्यालय में छ: नकाबपोश आदमी घुस आए, जिन्होंने कर्मचारियों के साथ मारपीट की और कार्यालय में तोड़फोड़ की. दो कर्मचारी तो बुरी तरह घायल हो गए और तोड़फोड़ से सम्पति को भी नुकसान हुया है. श्रीलंका में ‍तमिल-भाषी समाचार-पत्र या उनके वितरकों पर हमला होना कोई नई बात नहीं है, ऐसा कई बार हो चुका है. तमिल समाचार-पत्र 'उथयन' के मालिक सर्वनापवन श्रीलंका संसद में विपक्षी दल '‍तमिल नेशनल अलाईंस' के सांसद भी हैं. श्रीलंका पत्रकारों के लिए अब सुरक्षित स्थान नहीं रहा, ऐसा बहुत से लोगों का मानना है. पुलिस ने हालाँकि रिपोर्ट दर्ज कर ली है, पर अभी तक गिरफ्तारी की कोई ख़बर नहीं है.

सबसे दुःखद बात यह है कि संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद द्वारा पारित प्रस्ताव के बावजूद श्रीलंका सरकार पर कोई असर नहीं पड़ रहा है. हाथी के दाँत दिखाने के अलग और खाने के अलग और यही रवैया है श्रीलंका सरकार का, तभी तो वे अपने ही देश के तमिलों से अलग तरह का व्यवहार कर रहे हैं. उन्हें दूसरे दर्जे का नागरिक समझा जाता है. युद्ध समाप्त होने के बाद भी श्रीलंकाई सैनिकों की ज्यादतिया जारी हैं. बहुत से श्रीलंकाई तमिलों को अपना देश छोड़ने को मजबूर होना पड़ा. आज भी लगभग 80,000 श्रीलंकाई ‍तमिल शरणार्थी बेहतर जिन्दगी की आस में तमिलनाडु में स्थापित 110 से अधिक शरणार्थी शिविरों में रहने को मजबूर हैं और बेघर होने का दर्द लगातार सह रहे हैं. श्रीलंका के मानवाधिकार के उल्लंघन के मामले में भारत सरकार की दुविधा सबसे अधिक है। श्रीलंका में जिस तमिल आबादी पर श्रीलंका सरकार का आतंक है, वह ‍तमिल आबादी मूल रूपसे भारतीय मूल के ‍तमिल पूर्वजों के वंशज ही हैं. श्रीलंकाई तमिलों के पूर्वज तमिलनाडु से ही श्रीलंका गये थे। भारत की राजनीति पर श्रीलंकाई तमिलों के साथ होनेवाले अत्याचार का सीधा असर पड़ता है। जब तक श्रीलंका में वहाँ की सरकार सभी धर्मों के नागरिकों को सम्मान और गरिमा से जीवन बिताने का दायित्व सही अर्थों में नहीं निभायेगी तब तक श्रीलंका में विकास की उम्मीद नहीं की जा सकती। तब तक हम यह आशा नहीं कर सकते कि गरीबी में जी रहे श्रीलंका के अल्पसंख्यक नागरिकों को कोई राहत मिलेगी।

भारतीय मछुआरों की गिरफ्तारी
by Keshav Ram Singhal (Notes) on Thursday, 11 April 2013


पिछले माह श्रीलंका नौसेना ने 53 भारतीय मछुआरों को गिरफ्तार कर लिया था. भारत द्वारा विरोध दर्ज कराने के बाद उनमें से 34 मछुआरों को छोड़ दिया गया. इस माह के पहले सप्ताह में श्रीलंका नौसेना ने 26 भारतीय मछुआरों को कथित तौर पर उनके देश की जलसीमा में अवैध शिकार करने के लिए गिरफ्तार कर लिया है तथा उनके साजो-सामान भी जब्त कर लिए हैं. 19 मछुआरों का मामला अब मन्नार (श्रीलंका) न्यायालय में विचाराधीन है.

भारतीय मछुआरों की गिरफ्तारी के सम्बन्ध में तमिलनाडु की मुख्यमन्त्री जयललिता सारा ठीकरा केन्द्र सरकार पर फोड़ती रहीं हैं. वे कहती हैं कि यह सिर्फ़ इसलिए हो रहा है क्योंकि केन्द्र सरकार इस सम्बन्ध में कोई राजनयिक पहल नहीं कर रही है. 1974 में केन्द्र सरकार ने एक समझौते के अधीन कच्चातीपु द्वीप श्रीलंका को दे दिया था और इसी द्वीप से श्रीलंका नौसैनिक भारतीय मछुआरों को गिरफ्तार कर लेते हैं. उधर श्रीलंका के मत्स्य पालन मन्त्री राजिथा सेनरत्ना का कहना है कि श्रीलंका के बारे में गलतफहमी के कारण दक्षिण भारत के लोग सदेह के साथ कार्य करते हैं. उन्होंने यह भी इशारा किया कि अभी तक तमिलनाडु की मुख्यमन्त्री जयललिता या डीएमके नेता करुणानिधि में से किसी ने भी श्रीलंका की यात्रा नहीं की है और यही अविश्वास का मुख्य कारण बन गया है. भारतीय मछुआरों की गतिविधिओ पर टिप्पणी करते हुए वे कहते हैं कि भारतीय मछुआरों को शिकार करने के लिए श्रीलंका जलसीमा में नहीं आना चाहिये. उनका कहना है कि पिछले तीन माह में श्रीलंका के उत्तरी समुद्र में भारतीय मछुआरों द्वारा किए जाने वाले अवैध शिकार में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है, जिससे श्रीलंका को आर्थिक नुकसान होता है.

बहुत सारी समस्याओं के हल बातचीत से निपट जाते हैं. भारत और श्रीलंका के अधिकारियों के बीच मत्स्य पालन और कृषि पर प्रासंगिक संयुक्त समिति की बैठक जनवरी 2013 में आयोजित होनी थी, लेकिन भारतीय अधिकारियों ने इसकी तिथी मार्च तक केलिए बढ़ा दी. इसे मार्च माह में दिल्ली में आयोजित होना था, पर यह बैठक मार्च में भी आयोजित नहीं हो सकी. ऐसा सुनने में आया है कि अब यह बैठक मई 2013 में आयोजित होगी. संयुक्त समिति की बैठक का सम्पन्न ना होना इस समस्या को बढ़ा रहा है, क्योंकि ऐसे अनेक मुद्दे हैं जो आपसी विचार-विमर्श से हल किए जा सकते हैं. केन्द्र सरकार को चाहिये कि शीघ्र इस समिति की बैठक आयोजित करने की कार्रवाई करे और यह करना दोनों देशों के हित में भी है. यह बहुत ही जरुरी है कि अंतरराष्ट्रीय समुद्री सीमाओं और व्यवस्थाओं के अनुसार ही आगे एक व्यवस्थित प्रणाली को ठोस आकार दिया जाए, तभी समस्या सुलझ सकती है. साथ ही भारतीय मछुआरों के लिए जागरूकता अभियान भी चलाने की जरूरत है जिसके द्वारा उन्हें अंतरराष्ट्रीय समुद्री सीमाओं और व्यवस्थाओं के तहत ही कार्य करने के लिए जागरूक किया जाए.

उपर्युक्त लेख दिनांक 10 अप्रैल 2013 को लिखा ... उसके बाद की लेखकीय टिप्पणी

जैसा कि मैंने अपने लेख में लिखा है कि 19 मछुआरों का मामला अब मन्नार (श्रीलंका) न्यायालय में विचाराधीन है. आज 11 अप्रैल को श्रीलंका न्यायालय ने 19 मछुआरों की रिहाई का आदेश दिया है, जो 13 मार्च को कथित तौर पर श्रीलंका की समुद्री सीमा में मछली पकड़ने के लिए गिरफ्तार किए गए थे. ये मछुआरे फिलहाल अनुराधपुरम जेल में हैं और एक-दो दिन में ये भारत लौट आयेंगे. मन्नार न्यायिक मजिस्ट्रेट की अदालत में मजिस्ट्रेट सर्बुद्दीन ने इनकी रिहाई और इनकी चार नौकाओं को लौटने का आदेश दिया. भारतीय मछुआरों की रिहाई आदेश से मछुआरों में व्याप्त तनाव कम हुया है.

इस माह के प्रारंभ में गिरफ्तार 26 मछुआरों के मामले में ऊर्कावल्थुरै स्थित अदालत ने रिमांड की अवधि 19 अप्रैल तक बढ़ा दी है, जिन्हें 5 अप्रैल को गिरफ्तार किया गया था. इसके अलावा 6 अप्रैल को 30 मछुआरों को कच्चातीवु द्वीप के पास से गिरफ्तार किया गया था, उनके मामले की सुनवाई 18 अप्रैल को तय की गयी है.

- केशव राम सिंघल
(लेखक राजनीति विज्ञान में स्नातकोत्तर हैं और 1975 में श्रीलंका की यात्रा कर चुके हैं.)