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मन और बुद्धि - 2
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मानवीय संबंधों के साथ जोड़ते हुए गुरुग्राम के दास कृष्ण मन और बुद्धि के निम्न आपसी सम्बन्ध प्रतिपादित करते हैं और बताते हैं कि कुल सोलह सदस्यों से यह जीवन यात्रा चलती है -
* (1) मन = आत्मा और प्रकृति (माया) की पुत्रवधू = बुद्धि की पत्नी
* (2) बुद्धि = आत्मा और प्रकृति का पुत्र = मन का पति
* (3) प्रकृति = माया = संसार = मन की सास = आत्मा की पत्नी = इन्द्रियों की दादी
* (4) शरीर = बुद्धि की बहन = मन की ननद = इन्द्रियों की मौसी
* (5 से 14) बुद्धि और मन के दस पुत्र और पुत्रियाँ = इद्रियाँ = पाँच कमेन्द्रियाँ + पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ
* (15) आत्मा = मायापति = संसार (प्रकृति) के पति
* (16) परम आत्मा = प्रकृति और आत्मा के पिता और माता
सांख्य योग के दर्शन में भी यही कुल सोलह पात्र हैं। इन पात्रों की गतिविधि को समझाते हुए दास कृष्ण कहते हैं, मन तेल या लकड़ी है, बुद्धि आग है और आत्मा वायु है। आग (बुद्धि) के कारण लकड़ी या तेल (मन) जलता है और प्रकाश में बदल जाता है, लेकिन उसके लिए वायु (आत्मा) का होना जरूरी है। जब वायु (आत्मा) और लकड़ी / तेल (मन) साथ रहते हैं तो उनमें कोई बदलाव नहीं होता, लेकिन एक चिंगारी से उनमें आग लग जाती है। यह उदाहरण हमें यह समझाता हैं कि जिस तरह से आग को सावधानी से उपयोग में लाने की जरुरत होती है, उसी प्रकार बुद्धि को सावधान रहने की आवश्यकता है।
भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को उपदेश देते हुए स्पष्ट कहते हैं कि मन से भी अलग बुद्धि है। इन्द्रियाँ जड़ पदार्थ से श्रेष्ठ हैं, मन इन्द्रियों से बढ़कर (श्रेष्ठ) है, बुद्धि मन से भी उच्च है और आत्मा बुद्धि से भी बढ़कर है। (गीता अध्याय 3 श्लोक 42 में)
मन-बुद्धि अंतःकरण हैं। मन अच्छा-बुरा बहुत कुछ सोचता है, पर मन बुरा सोचे नहीं, यह तो और भी अच्छा होगा। इन्द्रियाँ व्यक्ति के कार्यकलापों के विभिन्न दरवाजे हैं। व्यक्ति का शरीर कार्यकलापों का घर है।
हरेक का जीवन एक व्यष्टि परिवाररूप है, जिसमें निम्न सोलह लोग रहते हैं - पहला, परम पिता अर्थात् परमात्मा - चाहे जड़ हो या चेतन हरेक कण में परमात्मा है; दूसरा, आत्मा अर्थात् चेतन अंश; तीसरा, माया अर्थात् यह संसार; चौथा, पाँचमहाभूत (अर्थात् जल, वायु, तेज, पृथ्वी और आकाश) से बना यह स्थूल शरीर; पाँचवाँ, बुद्धि; छठा, मन; सात से ग्यारह - पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ - श्रोत (कान), त्वचा, नेत्र, रसना (जीभ), और घ्राण (नासिका); बारह से सोलह - पाँच कमेन्द्रियाँ - वाक् (मूँह), पाणि (हाथ), पाद (पैर), उपस्थ और पायु। पाँच महाभूत से बना यह स्थूल शरीर 'विषय' है, इन्द्रियाँ 'बहिःकरण' हैं और मन-बुद्धि 'अंतःकरण' है।
मन और बुद्धि साथ-साथ रहते हैं, वे एक तरह से पत्नी और पति की तरह होते हैं। उनमें परस्पर युद्ध (विवाद) होता रहता है, पर वे अलग होकर भी नहीं रह सकते। एक तरह से देखा जाए तो कौरव और पाण्डव भी यही मन और बुद्धि हैं, जिनके बीच का युद्ध महाभारत है। हमारे अंतःकरण में चलने वाले इस युद्ध के रथ में मन घोड़े हैं और बुद्धि रस्सी (लगाम) है। घोड़े और लगाम सदा तनाव में रहते हैं। लगाम में तनाव होने से घोड़े भी तनाव में रहते हैं पर रहते हैं नियंत्रित और इसी कारण लक्ष्य की ओर बढ़ते हैं। लगाम को ढीला छोड़ देने से घोड़े अनियंत्रित होकर लक्ष्य से भटक सकते हैं।
मन जब कुछ कहता है, तब उसे सबसे पहले सुनने वाला बुद्धि होती है। बुद्धि के निर्णय के बिना मन इन्द्रियों से कुछ भी करवा नहीं सकता। मन स्वयं कोई निर्णय नहीं लेता, मन भाव-ताव करता है क्योंकि वह वैश्य है। बुद्धि क्षत्रिय है, जो साहसी है। मन के सभी निर्णय बुद्धि करती है या फिर मन इन्द्रियों के द्वारा बुद्धि की सहमति से करवाती है या फिर बुद्धि से छिपा कर करवाती है। जब कोई व्यक्ति कुछ गलत करता है या बुरा बोलता है, तब वह मन का दोष नहीं होता, बल्कि बुद्धि की कायरता, असावधानी या गलत निर्णय है।
बुद्धि जो मन को अनुशासित (अर्थात् नियंत्रित) करने में असफल है तो कहा जा सकता है कि व्यक्ति असावधान है। मन की वृतियों को रोकना संभव नहीं है। मन जब दुःखी होता है, तब वह शिकायत करने लगता है। बुद्धि के सावधान रहने की जरुरत है। यदि बुद्धि सावधान नहीं है तो मन अनियंत्रित होकर वाणी का दुरूपयोग करवाने लगता है या फिर इन्द्रियों के माध्यम से कुछ गलत करवा देता है। मन बुद्धि को नहीं जानता, पर बुद्धि मन को जानती है। बुद्धि मन की स्वामी है। बुद्धि मन को नियंत्रित-संयमित कर सकती है, दिशा दे सकती है।
हमारी जीवन यात्रा भी एक तरह का युद्ध ही है या यूँ कहें कि प्रत्येक का जीवन एक समुद्री यात्रा की तरह है, जो एक तरह का युद्ध ही है। जिस तरह समुद्री यात्रा में बहुत से खतरे होते हैं, उसी तरह हमारी जीवन यात्रा में बहुत से खतरे हैं। हमारी जीवन यात्रा तभी सुखद रह सकती है, जब मन रूपी नौका बुद्धि रूपी दिशा सूचक यंत्र के सहारे आगे बढ़े। जैसा कहा गया कि इस जीवन यात्रा में बहुत से खतरे है। इस यात्रा में मन को ही सबसे अधिक क्षति होती है, नुकसान होता है। मन की रक्षा करना प्रत्येक का उत्तरदायित्व है। संसार के वैभव किस काम के जब मन ही टूट जाए।
मन की इच्छाओं (desires of the mind) का सम्मान करना जीव (व्यष्टि आत्मा, जिसने शरीर धारण कर रखा है) का कर्तव्य है। अशांत मन से जीव की आत्मा निर्बल हो जाती है। (The soul of an organism becomes weak with a restless mind.) मन का अशांत होना बुद्धि की दिशा पर निर्भर है। दिशा सही तो दशा (परिणाम) सही।
मन के पाँच मुख्य दोष होते हैं - विषाद (sadness), क्रूरता (cruelty), व्यर्थ-चिंतन (waste-thinking), निरंकुशता (autocracy) और बुरे विचार (bad thoughts)। मन के इन दोषों का नाश विशुद्ध विचारों (pure thoughts) अर्थात् प्रसन्नता (happiness), सौम्यता (mildness), मानसिक मौन (mental silence), मनोनिग्रह और शुद्ध भावों (pure emotions) के परिशीलन (purification) से किया जा सकता है। दिन-रात संसार के अनुकूल-प्रतिकूल विषयों का चिंतन करते रहने से मन कभी शांत नहीं रह पाता है। इसके लिए बुद्धि का मन को अच्छी तरह समझकर संयमित और वश में करने की जरूरत है। मन आत्मा का स्वामीं नहीं, वरन सेवक है। यदि मन नियंत्रित होगा तो हमारे सभी शुभ कायों में यह हमारा सहायक बन जाएगा।
मन में इच्छा होती है। मन की इच्छा के कारण कर्मबन्धन है। मन रूपी नौका इस संसार के साधनों से चलती है, पर हमें अपना जीवन उन्नत करना है और मन को इसी संसार के पार ले जाना है। इसके लिए मन को लक्ष्य और परिस्थितियों के अनुसार संयमित करने की जरुरत है।
संत कबीर दास जी का एक दोहा है -
"माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर।
आशा तृष्णा न मरी, कह गए दास कबीर।"
भावार्थ - संत कबीर दास कहते हैं - मायाधन और इंसान का मन कभी नहीं मरा, इंसान मरता है, शरीर बदलता है, लेकिन इंसान की इच्छा और ईर्ष्या कभी नहीं मरती।
कबीर दास जी कहते हैं कि शरीर, मन, माया सब नष्ट हो जाता है परन्तु मन में उठने वाली इच्छा और तृष्णा कभी ख़त्म नहीं होती। इसलिए संसार के मोह तृष्णा आदि में नहीं फँसना चाहिए।
ॐ तत् सत्।
शेष फिर ,,,,,,,,,
सादर,
केशव राम सिंघल
*साभार*
- श्रीमद्भगवद्गीता साधक संजीवनी - हिंदी-टीका, स्वामी रामसुखदास जी
- श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप, स्वामी प्रभुपाद जी
- प्रवचन लेख, गुरुग्राम निवासी श्रीकृष्ण भक्त 'दास कृष्ण' श्री कृष्ण गोपाल मिश्र जी