Friday, July 4, 2025

महाभारत के प्रमुख पात्र अर्जुन – एकाग्रता, वीरता और आत्मसंघर्ष का प्रतीक

महाभारत के प्रमुख पात्र अर्जुन – एकाग्रता, वीरता और आत्मसंघर्ष का प्रतीक

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प्रतीकात्मक चित्र साभार OpenAI द्वारा निर्मित 

महाभारत के वीरों में अर्जुन का नाम सबसे ऊपर आता,

श्रेष्ठ धनुर्धर, संवेदनशील योद्धा, जो सदा सत्य अपनाता।


अर्जुन – धर्मनिष्ठ और आत्मसंयमी योद्धा,

हर परिस्थिति में धर्म, विवेक और संयम से डटा रहा,

सच्चा वीर वही – जो बाहरी संग्राम के साथ भीतर मन का युद्ध भी लड़ा।


वंश, शिक्षा और गुरुकुल जीवन


पांडवों में था तीसरा भाई, जिनकी शिक्षा थी विलक्षण,

महाराज पांडु और रानी कुंती के इस पुत्र में था गुणों का सम्मिलन।

बचपन से ही नीति, धर्म और युद्धकला में था अग्रणी,

गुरु द्रोणाचार्य ने उन्हें माना शिष्यों में श्रेष्ठतम ज्ञानी।


एकाग्रता की मिसाल


चिड़िया की आँख का प्रसंग उनकी एकाग्रता का प्रमाण बना,

जो लक्ष्य पर केंद्रित रहे, वही सच्चे परिणाम को है पाता।


पराक्रम और कीर्तिगाथा 


स्वयंवर में कठिन लक्ष्य भेदा, द्रौपदी से विवाह रचाया,

खांडव वन दहन, इंद्र से दिव्यास्त्र, दिग्विजय से यश कमाया।

भगवान शिव से मिला पाशुपतास्त्र, जो था अद्भुत वरदान,

अर्जुन के शौर्य की गाथा गूंजे हर युग में हर इंसान।


श्रीकृष्ण से मित्रता और गीता का उपदेश


श्रीकृष्ण से थी प्रगाढ़ मित्रता – अनुपम और अपार,

उन्हीं से मिला गीता का दर्शन ज्ञान – अमूल्य विचार।

सारथी, सखा, मार्गदर्शक – हर मोड़ पर रहे श्रीकृष्ण सच्चे,

धर्म और कर्म का मार्ग दिखाया, जब अर्जुन रहे द्वन्द में उलझे।


महाभारत युद्ध पूर्व जब देखे बंधु-बांधव रणभूमि में खड़े,

शस्त्र त्याग कर बैठ गया वह – मोह, करुणा और धर्मसंकट से घिरे।


तब श्रीकृष्ण ने गीता का उपदेश सुनाया –

"कर्म करो, फल की चिंता मत करो।"

"धर्म के लिए संघर्ष ही तुम्हारा सच्चा कर्तव्य है – यह न भूलो।"


अर्जुन से प्रेरणाएँ 


* एकाग्रता से लक्ष्य पर अडिग रहो।

* श्रेष्ठ बनो, पर अहंकार से सदा दूर रहो।

* आत्ममंथन करो, निर्णय विवेक से लो।

* गुरु के प्रति श्रद्धा और निष्ठा रखो।

* अनुशासन और अभ्यास को जीवन का अंग बनाओ।

* संघर्षों में भी धैर्य और संतुलन न खोओ।


अर्जुन से जीवन की शिक्षाएँ 


* कठिन परिश्रम और निरंतर अभ्यास से ही सफलता मिलती है।

* भ्रम की स्थिति में ज्ञान, विवेक और विश्वास से मार्ग चुनें।

* सच्चे मित्र और मार्गदर्शक की बातों को ध्यान से सुनें।

* आत्मविश्वास और मन की स्थिरता ही सबसे बड़ा शस्त्र है।


सादर,

केशव राम सिंघल 



Friday, June 27, 2025

महाभारत के प्रमुख पात्र श्रीकृष्ण — नीति, मित्रता और जीवन-दर्शन के प्रतीक

 महाभारत के प्रमुख पात्र श्रीकृष्ण  — नीति, मित्रता और जीवन-दर्शन के प्रतीक

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प्रतीकात्मक चित्र साभार NightCafe 

महाभारत के प्रमुख पात्र हैं श्रीकृष्ण 

नीति, मित्रता और जीवन-दर्शन के प्रतीक।

कुरुक्षेत्र रण में निभाई अद्भुत भूमिका,

रहे अर्जुन के सारथी, कूटनीतिज्ञ और मित्र। 

 

मथुरा के कारागार में हुआ था उनका जन्म,

गोकुल-वृंदावन में पले प्रेम और लीलाओं के संग।

माखनचोरी और रास की अनेक मधुर कहानी,

राक्षसों पर विजय की गाथाएँ सुनी माँ की वाणी। 


पर केवल चमत्कार नहीं थे श्रीकृष्ण,

वे थे नीति, धर्म और विवेक के दृष्टा।  

उन्होंने धर्म की रक्षा का लिया था संकल्प,

उनके निर्णयों में था न्याय का अडिग विकल्प। 


जब कौरवों ने पांडवों को दिया अन्यायपूर्ण वनवास,

कृष्ण बने आशा की किरण, धर्म की विशेष आस।

द्रौपदी के अपमान पर उठाई धर्म की वाणी,

सभा में गूँजी मूक दर्शकों की व्यथा पुरानी।


शांति का प्रयास श्रीकृष्ण ने किया बारंबार, 

जब न माने कौरव तो खुला युद्ध का द्वार।

धर्मस्थापना को उन्होंने चुना रण का मार्ग,

अर्जुन को दी गीता — जीवन का सर्वोत्तम सार। 


जब अर्जुन हुआ मोह और शोक में उलझा,

तब श्रीकृष्ण ने कहा —

"कर्म करो, फल की चिंता न करो,

जो हुआ अच्छा हुआ, जो होगा वह भी श्रेष्ठ होगा।" 


श्रीकृष्ण हैं प्रेरणा के अखंड भंडार,

सुदामा या अर्जुन – निभाई मित्रता हर बार।

हर निर्णय में धैर्य और दूरदर्शिता दिखाई,

युद्ध से पहले भी शांति की राह अपनाई। 


श्रीकृष्ण का जीवन है धर्म की सजीव व्याख्या समझो सभी,

अपार शक्तिशाली होकर भी ना करो अहंकार का प्रयोग कभी।


कुछ सीखें श्रीकृष्ण से —

मित्रता निभाना एक श्रेष्ठ कला है,

धैर्य, विवेक, और कर्म से मिलती सफलता है।

धर्म और न्याय के पक्ष में अडिग रहना,

कठिन परिस्थितियों में सर्वोच्च उद्देश्य बनाना।


श्रीकृष्ण केवल पौराणिक पात्र नहीं, जीवन-दर्शन हैं,

वे दर्शन, प्रेरणा, और चेतना का यथार्थ हैं।

जब जीवन में हो द्वंद्व या हो भ्रम की घड़ी,

गीता की शिक्षाएँ बनें समाधान की कड़ी।


सादर, 

केशव राम सिंघल 



Sunday, June 22, 2025

पौराणिक कथाएँ: श्रद्धा से आत्मबोध तक की यात्रा

पौराणिक कथाएँ: श्रद्धा से आत्मबोध तक की यात्रा

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प्रतीकात्मक चित्र साभार NightCafe 

मैंने Economic Times में 21 जून 2025 को देवदत्त पटनायक का लेख "ईश्वर एक जनक, व्यवस्थाकर्ता, विध्वंसक के रूप में" (God as Generator, Organiser, Destroyer) पढ़ा और उसके अत्यंत सारगर्भित और गूढ़ विचारों से प्रभावित हुआ। इस लेख में  हिंदू पौराणिक दृष्टिकोण से सृष्टि, जीवन, भूख, भय और ईश्वर के प्रतीकों को गहराई से समझाया गया है। 


पौराणिक दृष्टिकोण से दुनिया और जीवन का अंतर निम्न है:


दुनिया (World) भौतिक जगत है, जिसमें पदार्थ, रसायन, तारे, ग्रह, भूमि, समुद्र हैं और जीवन (Life) जीवविज्ञान है, जो भूख और भय से प्रेरित अस्तित्व है। भूख और भय के बिना जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती।


जीवन के आयामों के प्रतीक रूप में त्रिदेव – ब्रह्मा, विष्णु, शिव की भूमिकाओं को देखते हैं तो हम पाते हैं कि ब्रह्मा की भूमिका जनक (Creator) की है।  वे भूख के जन्मदाता और जीवन की शुरुआत करने वाले हैं। विष्णु की भूमिका व्यवस्थाकर्ता (Organizer) की है। वे भूख और भय को संतुलित करने वाले और समाज में संतोष लाने का प्रयास करने वाले हैं। शिव की भूमिका विध्वंसक (Destroyer) की है। वे भूख और भय के अंतकर्ता हैं, वैराग्य और मुक्ति के प्रतीक। 


पौराणिक कहानियों के पात्र – आधुनिक विचारों के प्रतीक रूपक (metaphors) हैं, जिन्हें समझने की जरूरत है। इनके माध्यम से हम जटिल मानसिक, सामाजिक और आध्यात्मिक अवधारणाओं को सरल रूप में समझ सकते हैं।


दृष्टि → अंतर्दृष्टि → प्रतिबिंब (Vision → Insight → Reflection)


1. दृष्टि (Vision): हमें यह दिखाती है कि लोग किन 'भोजनों' के पीछे भागते हैं – लक्ष्मी (संसाधन), दुर्गा (शक्ति), सरस्वती (ज्ञान)।

2. अंतर्दृष्टि (Insight): यह समझ देती है कि यह दौड़ भूख, असुरक्षा और जिज्ञासा से प्रेरित है।

3. प्रतिबिंब (Reflection): हम इन भावनाओं को **अपने भीतर** भी पहचानते हैं। हर व्यक्ति के भीतर ब्रह्मा, विष्णु और शिव जैसे तत्व होते हैं, जो विचार और कर्मों को संचालित करते हैं।

 

पौराणिक कथाओं को हम उपकरण साधन (टूलकिट) की तरह देख सकते हैं। यदि हम पौराणिक कहानियों को राजनीतिक या केवल धार्मिक चश्मे से देखें, तो उनका गूढ़ अर्थ छूट जाता है। लेकिन यदि उन्हें आत्म-बोध और संतुलन के साधन के रूप में देखा जाए, तो वे हमारे भीतर की असंतोष, लालसा और भय को समझने और नियंत्रित करने का माध्यम बन सकती हैं।


देवदत्त पटनायक के इस लेख में यह सार है कि हिंदू पौराणिकता मानव मन की भूख, भय और जिज्ञासा को समझने का दार्शनिक व मनोवैज्ञानिक उपकरण है। इसमें ईश्वर भी प्रतीक बन जाते हैं, और कथाएँ आत्म-परीक्षण का रास्ता बन जाती हैं।


मैंने इस पर विचार किया कि हम पौराणिक कथाओं को केवल धार्मिक या रूढ़िगत दृष्टिकोण से न देखकर आत्मबोध के उपकरण के रूप में कैसे देखें। नीचे मैं सती और शिव की एक प्रसिद्ध पौराणिक कथा की धार्मिक और आत्मिक दोनों दृष्टिकोणों से तुलना करने का प्रयास करता हूँ। संक्षेप में कथा निम्न है - "सती, दक्ष प्रजापति की पुत्री और शिव की पत्नी थीं। एक बार उनके पिता ने एक विशाल यज्ञ आयोजित किया।  इस यज्ञ में शिव को आमंत्रित नहीं किया, तब सती अत्यधिक व्यथित हुईं। अपने पति के अपमान को सहन न कर पाने के कारण उन्होंने यज्ञ स्थल पर ही आत्मदाह कर लिया। जब शिव को यह समाचार मिला, तो उन्होंने क्रोध में तांडव किया और संहारक रूप धारण कर लिया। अंततः, विष्णु ने सती के शरीर के टुकड़े कर पृथ्वी पर बिखेर दिए, जिससे शक्तिपीठों की स्थापना हुई।"


धार्मिक दृष्टिकोण से यह कथा बताती है कि शिव को अपमान सहन नहीं और सती पति के प्रति समर्पित थीं। यह कथा शक्तिपीठों की स्थापना की व्याख्या करती है। इस प्रकार यह श्रद्धा, व्रत, और शक्ति पूजा का आधार बनती है। यह दृष्टिकोण श्रद्धा-आधारित आस्था के लिए उपयोगी है।


इसी कथा को आत्म-बोध (Psychological/Philosophical) दृष्टिकोण से समझे तो आंतरिक भावनाओं और मानव व्यवहार के प्रतीक के रूप में हम पाते हैं कि सती प्रतीक रूप में आत्मा या भावनात्मक चेतना, शिव प्रतीक रूप में चेतना, वैराग्य और आत्म-नियंत्रण, दक्ष प्रतीक रूप में अहंकार और सामाजिक प्रतिष्ठा, यज्ञ प्रतीक रूप में बाहरी प्रदर्शन और समाज का दबाव , तांडव प्रतीक रूप में आंतरिक उथल-पुथल और अनियंत्रित भावनाएँ सम्प्रेषित करती है। यह कथा निम्न गूढ़ संदेश देती है - 


* जब भावनाएँ (सती) अहंकार (दक्ष) और समाज के नियमों (यज्ञ) से आहत होती हैं, तो उनका विनाश होता है।

* उस भावनात्मक आघात से चेतना (शिव) भी विचलित होती है – वह शांति खो बैठती है और क्रोध (तांडव) के रूप में प्रकट होती है।

* केवल संतुलन और विवेक (विष्णु) ही इस आंतरिक उथल-पुथल को संभाल सकते हैं।

* सती का शरीर विभाजित होना बताता है कि हमारा आंतरिक संतुलन टूटता है, और जीवन को पुनः एकत्र करने के लिए हमें अपने विखरे हुए अंशों को पहचानना और स्वीकार करना होता है। यही हैं शक्तिपीठ – हमारे भीतर के बिंदु जहाँ चेतना बिखरी पडी है। 


अगर हम इस कथा को केवल धार्मिक कहानी मान लें, तो हम पूजा, शक्तिपीठ और आस्था तक सीमित रह जाते हैं। लेकिन अगर हम इसे आत्मविश्लेषण और भावनात्मक समझ के रूप में देखें, तो यह सिखाती है - 


  * अपने अहंकार और भावनाओं को हमें संतुलित करना चाहिए।

  * भीतर के शिव और सती को कैसे पहचानना और पोषित करना चाहिए। 

  * जीवन में जब असंतुलन हो, तो विष्णु जैसे विवेकपूर्ण दृष्टिकोण से समाधान लाना चाहिए। 


कुरुक्षेत्र का संग्राम, जिसे हम महाभारत के नाम से जानते हैं, केवल एक ऐतिहासिक या धार्मिक युद्ध नहीं है, बल्कि यदि हम इसे आत्म-बोध, मनोवैज्ञानिक और दार्शनिक दृष्टिकोण से देखें तो यह मनुष्य के भीतर चल रहे सतत संघर्ष का प्रतीक बन जाता है। धार्मिक दृष्टिकोण (Traditional View) से कुरुक्षेत्र का युद्ध धर्म और अधर्म के बीच था। पांडव धर्मपथ पर थे, जबकि कौरव अन्याय और लोभ से प्रेरित थे। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गीता का उपदेश देकर उसे धर्मयुद्ध के लिए प्रेरित किया। यह युद्ध अंततः सत्य की विजय का प्रतीक बना। यह दृष्टिकोण हमें प्रेरणा देता है कि धर्म के पक्ष में खड़ा रहना चाहिए और अधर्म के विरुद्ध संघर्ष करना चाहिए। आत्मबोध / मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण (Psychological-Philosophical View) से हम देखें तो पाते हैं कि कुरुक्षेत्र वास्तव में हमारे ही भीतर का मैदान है। यह कथा हमारे अंतर्मन में चल रहे द्वंद्व, दायित्व और मोह, विवेक और भावनाओं, आत्मा और अहंकार के बीच के संघर्ष को दर्शाती है। प्रमुख प्रतीकों के रूप में इस युद्ध के पात्रों की व्याख्या करें तो हम पाते हैं कि अर्जुन वह आत्मा या व्यक्ति है जो भ्रमित है, द्वंद्व में है, अनिर्णय की स्थिति में है कि क्या करूँ, क्या न करूँ। कृष्ण उच्च चेतना, विवेक, आत्मज्ञान के प्रतीक हैं, जो व्यक्ति को भीतर से मार्गदर्शन करता है। कुरुक्षेत्र हमारा अंतर्मन / जीवन है, जहाँ सही और गलत की टकराहट होती है। पांडव सत्कर्म, संयम, धैर्य, धर्म के गुण के प्रतीक हैं, जबकि कौरव वासना, अहंकार, लोभ, मोह के प्रतीक हैं, जो मनुष्य को नीचे की ओर खींचते हैं। धृतराष्ट्र अंधा मोह और आत्म-अस्वीकृति (blind attachment), संजय जागरूकता / चेतना के प्रतीक हैं, जो देखने में सक्षम है, पर कुछ करने में भाग नहीं लेते। गीता का उपदेश आत्मबोध की उद्घोषणा – कर्मयोग, निष्कामता, आत्म-नियंत्रण का संदेश है। यह कथा हमें बहुत से गूढ़ संदेश (Deeper Insights)  देती है। हर मनुष्य का मन एक कुरुक्षेत्र है, जहाँ धर्म (सत्य, कर्तव्य) और अधर्म (मोह, स्वार्थ) के बीच निरंतर संघर्ष चलता है। अर्जुन की तरह हम भी कई बार निर्णयहीन हो जाते हैं, जीवन की जिम्मेदारियाँ और रिश्तों की उलझनें हमें कर्म से विचलित कर देती हैं। कृष्ण भीतर की वह आवाज़ हैं, जो हमें आत्म-ज्ञान से प्रेरित करती है। जब हम ध्यान और विवेक से काम लेते हैं, तब यह "कृष्ण" सक्रिय होता है और हमें कर्तव्यपथ पर चलने का मार्ग दिखाता है। पांडव और कौरव केवल दो पक्ष नहीं, बल्कि हमारे भीतर के दो प्रवृत्तियाँ हैं। हमें अपने जीवन में बार-बार यह  निर्णय लेना होता है – किसे पोषण दें, किसे जीतने दें। अंत में, विजय उन्हीं गुणों की होती है जो आत्मसंयम, विवेक, त्याग और धर्म पर आधारित हों। 


यदि हम केवल धार्मिक दृष्टि से देखें तो यह एक पवित्र युद्ध था, गीता एक धार्मिक ग्रंथ है, कृष्ण भगवान हैं, और अर्जुन आदर्श भक्त। यदि हम आत्मबोध की दृष्टि से देखें तो यह जीवन का सतत युद्ध है – मन, बुद्धि और आत्मा के बीच। गीता एक मनोवैज्ञानिक और दार्शनिक मार्गदर्शन है, और कृष्ण हमारे भीतर की जागरूकता हैं, जो हमें कर्मयोगी बनने की प्रेरणा देती है। सार रूप में हम पाते हैं कि कुरुक्षेत्र का युद्ध केवल बाहरी नहीं है, बल्कि वह भीतर की लड़ाई का दर्पण है। हर मनुष्य को जीवन में कई बार अर्जुन की स्थिति से गुजरना पड़ता है – जहाँ मोह, दायित्व और भावनाओं के बीच द्वंद्व होता है। उस समय अगर हमारे भीतर का कृष्ण जाग्रत हो जाए, तो जीवन की दिशा स्पष्ट हो जाती है।


सादर,

केशव राम सिंघल 



Saturday, June 7, 2025

शक्ति – जीवन का सेतु और स्वरूप

शक्ति – जीवन का सेतु और स्वरूप

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सृष्टि में प्रत्येक जीवात्मा एक देवतुल्य अस्तित्व है।

हर देव में एक विशेष शक्ति निहित होती है, और यही शक्ति पराक्रम का आधार बनती है।

शक्ति ही वह तत्व है जो किसी भी कार्य को संपन्न करने की क्षमता प्रदान करता है। शक्ति के बिना कोई कुछ नहीं कर सकता।


सत्य और शक्ति, दोनों ही तत्व इहलोक और परलोक के बीच सेतु का कार्य करते हैं।

सत्य, जहाँ चेतना को उच्चतर मार्ग दिखाता है, वहीं शक्ति उसे उस मार्ग पर चलने का सामर्थ्य देती है।


जीवात्मा की शक्ति दो स्तरों पर प्रकट होती है  –


* एक प्रकृतिदत्त शक्ति, जो जन्मजात होती है,

* और दूसरी अर्जित शक्ति, जिसे अनुभव, अभ्यास, साधना और संघर्षों से प्राप्त किया जाता है।


जीवात्मा की आंतरिक शक्ति आत्मा में निहित होती है – यह चेतन, स्थिर और शुद्ध होती है।

वहीं, बाह्य शक्ति वह है जिसे जीव इस संसार में कर्म के माध्यम से प्राप्त करता है।


जीवन में शक्ति के अनेक रूप होते हैं  –


* शारीरिक शक्ति

* बौद्धिक शक्ति

* मानसिक शक्ति

* प्राणशक्ति

* पोषण शक्ति

* संहार शक्ति

* आवेग और आवेश की शक्ति

* सहयोग की शक्ति

* आध्यात्मिक शक्ति

* आधिभौतिक शक्ति

* आधिदैविक शक्ति

* माया शक्ति

* रूप शक्ति

* बाहरी और आंतरिक शक्ति


प्रकृति का श्रेष्ठ प्रतीक सूर्य भी शक्ति का प्रतीक है।

सूर्य की शक्ति दो रूपों में प्रकट होती है  –


* ताप से सृष्टि का कर्म और क्रिया संभव होती है।

* प्रकाश से रूप का अभिव्यक्त स्वरूप प्रकट होता है।


यही ताप और प्रकाश समस्त जीवों को ऊर्जा देते हैं, और यही ऊर्जा ही शक्ति का स्वरूप है।


सार  


शक्ति जीवन की मूलभूत आवश्यकता है।

शक्ति केवल भौतिक नहीं, बल्कि आत्मिक, नैतिक और भावनात्मक स्तर पर भी आवश्यक है।

शक्ति के बिना चेतना निष्क्रिय है, संकल्प निर्बल है, और जीवन निष्फल।


इसलिए –

शक्ति है तो गति है, गति है तो सृष्टि है।


सादर, 

केशव राम सिंघल ✍️


Saturday, May 24, 2025

कर्म, अकर्म और विकर्म – जीवन की दिशा

कर्म, अकर्म और विकर्म – जीवन की दिशा

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प्रतीकात्मक चित्र साभार - ओपनएआई (OpenAI) 


कोई भी कार्य जो हम सोचकर, बोलकर या शरीर द्वारा करते हैं, वह कर्म कहलाता है। यह कोई भी छोटा या बड़ा काम हो सकता है। कर्म की सरल परिभाषा  – कर्म वह कार्य है, जो मन, वाणी और शरीर द्वारा किया जाए। कर्म के कुछ उदाहरण  – छात्र का पढ़ाई करना, किसान का खेत जोतना, माता-पिता का बच्चों की देखभाल करना, बात करना, चलना, खाना, पूजा करना, या किसी का बुरा सोचना। किसी का बुरा सोचना, झूठ बोलना, चोरी करना – ये भी कर्म हैं, लेकिन ये 'विकर्म' की श्रेणी में आते हैं।


हम सभी के जीवन की दिशा हमारी सोच और आचरण से तय होती है। भगवद्गीता में श्रीकृष्ण ने "कर्म", "अकर्म" और "विकर्म" के भेद को स्पष्ट किया है। इन तीनों का सही बोध और संतुलन ही हमारे जीवन को सार्थक बना सकता है।


"कर्म" वह है जो धर्म, कर्तव्य और नैतिकता से प्रेरित होता है – जैसे शिक्षक द्वारा शिक्षा ज्ञान देना, डॉक्टर द्वारा मरीज का उपचार करना या माता-पिता द्वारा अपने बच्चों का पालन-पोषण करना। इस तरह का कर्म व्यक्ति और समाज – दोनों के हित में होता है। "अकर्म" देखने में निष्क्रियता जैसा लगता है, परंतु वास्तव में यह निस्वार्थ सेवा, फल की अपेक्षा से रहित कर्म को दर्शाता है। यह 'कर्म में अकर्ता-भाव' की वह अवस्था है, जहाँ व्यक्ति में अहं नहीं होता। "विकर्म" वह कर्म है जो अधर्म, लोभ, हिंसा, कपट और स्वार्थ से प्रेरित होता है। यह व्यक्ति को पथभ्रष्ट करता है और अंततः आत्मा को भी कलुषित करता है।


नीचे प्रस्तुत मेरी लघु काव्य रचना इन्हीं तीनों रूपों को सरल शब्दों में प्रस्तुत करने का एक प्रयास है, ताकि पाठक आत्मचिंतन कर सकें – "मैं किस दिशा में जा रहा हूँ? जीवन में सही दिशा के लिए कर्म को अपनाइए, अकर्म का भाव जाग्रत रखिए, विकर्म से सदा दूर रहिए। इसी में हमारे जीवन की सच्ची सफलता और शांति निहित है। 


काव्य रचना


जीवन की राह – कर्म, अकर्म, विकर्म ,

इनको समझना यही सच्चा मानव धर्म। 


कर्तव्य जो हो, धर्म से जुड़ा,

निष्पक्ष हो, सुनीति से बँधा।

वही है "कर्म", जो आगे बढ़ाए,

मानवता का दीप हममें जलाए।


"अकर्म" वो जो सेवा में रहे सदा तत्पर,

न फल की चिंता, न यश का कोई मंजर।

निस्वार्थ भाव से रहें सदा करुणा के संग,

अहं न हो, रहें सदा निर्मल उमंग।


"विकर्म" है भ्रष्ट आचार-विचार,

पाप में डूबा, छल का संसार।

हिंसा, कपट, लोभ की ओर,

करे मन को पथ-भ्रष्ट घोर। 


जीवन में चुनो सही कर्म सदा,

कर्म का दीपक हो मन में जगा।

अकर्म का भाव रहे अंतर्मन में,

विकर्म से दूर रहें पूरे जीवन में। 


सादर, 

केशव राम सिंघल 




Thursday, May 22, 2025

जीवन का लक्ष्य - परमात्मा की शरण

जीवन का लक्ष्य - परमात्मा की शरण 

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प्रतीकात्मक चित्र साभार - ओपनएआई (OpenAI) 

मेरे मन में प्रश्न उठा कि मेरे जीवन का लक्ष्य क्या है। मुझे लगता है कि परमात्मा के साथ संबंध स्थापित करना और उनकी सेवा करना ही जीवन का असली लक्ष्य है। हम सभी परमात्मा का अंश हैं, और यह मानव जीवन उनकी कृपा से मिला है। यह शरीर प्रकृति से बंधा है, लेकिन आत्मा शाश्वत है।


विज्ञान और आध्यात्मिकता 


हमें यह समझने की जरुरत है कि इस ब्रह्माण्ड के आदि, अंत अथवा आधार के बारे में कोई नहीं जान सकता। विज्ञान और आध्यात्मिकता, दोनों ही इस ब्रह्मांड के रहस्यों को समझने के प्रयास हैं। वैज्ञानिक बिग बैंग सिद्धांत के माध्यम से ब्रह्मांड की उत्पत्ति और गुरुत्वाकर्षण जैसे नियमों के माध्यम से इसके संचालन को समझने का प्रयास करते हैं। ये सिद्धांत हमें भौतिक जगत की कार्यप्रणाली समझाते हैं, जैसे ग्रहों की गति या पदार्थ का व्यवहार। परंतु, ब्रह्मांड के आदि, अंत, या इसके मूल स्रोत के बारे में विज्ञान अभी तक किसी ठोस निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पाया है। दूसरी ओर, आध्यात्मिक दर्शन हमें बताता है कि इस ब्रह्मांड का आधार एक चेतन शक्ति, परमात्मा, है, जो सृष्टि का स्रोत और संचालक है। विज्ञान भौतिक सत्य की खोज करता है, जबकि आध्यात्मिकता हमें उस शाश्वत सत्य की ओर ले जाती है, जो आत्मा और परमात्मा के संबंध में निहित है। दोनों दृष्टिकोण एक-दूसरे के पूरक हो सकते हैं—विज्ञान हमें प्रकृति के नियम समझाता है, और आध्यात्मिकता हमें उस सत्य की ओर ले जाती है, जो इन नियमों से परे है। 

 

आसक्ति के पाँच बंधन 


हमारा शरीर पाँच आसक्तियों से बंधा है, जो हमें परमात्मा से दूर रखती हैं - 


1. शरीर के प्रति आसक्ति - हम अपनी शारीरिक सुंदरता और स्वास्थ्य को लेकर इतने चिंतित रहते हैं कि आत्मा की ओर ध्यान नहीं देते।  

2. स्वजनों के प्रति आसक्ति - परिवार और रिश्तों के प्रति प्रेम हमें इतना बाँध लेता है कि हम परमात्मा की ओर बढ़ना भूल जाते हैं।  

3. भौतिक वस्तुओं से आसक्ति - धन, संपत्ति, और सांसारिक सुखों की चाह हमें भटकाती है और आध्यात्मिक लक्ष्य से दूर ले जाती है।  

4. विज्ञान की आसक्ति - हम भौतिक ज्ञान को ही अंतिम सत्य मान लेते हैं, जिससे आत्मा और परमात्मा का सत्य अनदेखा रह जाता है।  

5. धार्मिक अनुष्ठानों की आसक्ति - परमात्मा को जाने बिना हम रस्मों और अनुष्ठानों में उलझ जाते हैं, जो हमें सच्ची भक्ति से दूर रखते हैं।  


इन बंधनों से मुक्ति पाकर हमें परमात्मा के शाश्वत धाम की ओर बढ़ना चाहिए, जहाँ आत्मा को शांति और आनंद मिलता है। इसके लिए हमें ध्यान, भक्ति, और निस्वार्थ सेवा का मार्ग अपनाना चाहिए। ध्यान का अर्थ है मन को शांत कर परमात्मा पर केंद्रित करना, और भक्ति का अर्थ है प्रेम और समर्पण के साथ उनकी सेवा करना।


परमात्मा की कृपा से मुझे यह मानव जीवन मिला है, जो अन्य योनियों से श्रेष्ठ है। यह शरीर लाखों वर्षों के देहांतरण चक्र के बाद प्राप्त हुआ है। जो जीव परमात्मा से जुड़ जाता है, वह जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त होकर शाश्वत धाम में पहुँचता है। हमने पहले यह प्रयास किया होगा, पर सफल न होने के कारण हमें यह अवसर पुनः मिला है। हमें इस मानव जीवन के लिए परमात्मा का आभार मानना चाहिए और उनके साथ जुड़ने का प्रयास करना चाहिए। 


जीव के लिए यह शरीर प्रकृति (संसार) से बंधा हुआ है और जीव का शरीर जीव के लिए कर्म-क्षेत्र है। प्रकृति भौतिक जगत है और शरीर के द्वारा जीव प्रकृति को अपने वश में करना चाहता है। शरीर इन्द्रियों से निर्मित भौतिक यंत्र है, जिसे आत्मा से चेतना मिलती है। जीव शरीर के भीतर है और आत्मा जीव के भीतर चेतना का स्रोत है। आत्मा, जो जीव के भीतर चेतना-पुंज है, वह परमात्मा का ही एक अंश है। आत्मा शरीर की स्वामी है और जब तक वह शरीर में है तब तक शरीर में चेतना है। जीव को शरीर में रहने वाली आत्मा कहा जा सकता है। 


 दुःखमय संसार से मुक्ति 


हमारा यह संसार जन्म, मृत्यु, और दुःखों से भरा है। हमारा परम कल्याण परमात्मा के शाश्वत धाम में है, जहाँ आत्मा जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त होकर शाश्वत शांति और आनंद प्राप्त करता है। इसके लिए हमें आसक्ति और मोह से मुक्त होना होगा। 


आध्यात्मिक उन्नति का अवसर 


मैं अब 74 वर्ष से अधिक आयु का हूँ और सुविधाजनक जीवन जी रहा हूँ। मुझे भोजन और दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति की समस्या नहीं है, और मेरी इच्छाएँ सीमित हैं। इसलिए, मुझे लगता है कि यह आध्यात्मिक उन्नति का सुअवसर है। उदाहरण के लिए, मैं ध्यान, प्रार्थना और गीता अध्ययन के माध्यम से परमात्मा से जुड़ने का प्रयास करता हूँ। मैं परमात्मा का अंश हूँ, और मेरी आत्मा मेरे शरीर को संचालित करती है। इसी तरह, अन्य जीवों की आत्माएँ उनके शरीरों को चलाती हैं, और यही चेतना इस विश्व को गतिमान रखती है। मनुष्य अपने शरीर की चिंता तो करता है, पर आत्मा के बारे में सोचता नहीं, जो वास्तव में उसे संचालित करती है।


हमें परमात्मा के शाश्वत धाम में  शाश्वत जीवन अर्थात्त अपने आध्यात्मिक अस्तित्व को खोजना चाहिए। परमात्मा का शाश्वत धाम वह नित्य लोक है, जहाँ पहुँचने के बाद हमारे आगे की देहांतरण यात्रा समाप्त हो जाती है और हम शाश्वत जीवन जीते हैं। 


मेरा सांसारिक जीवन कब प्रारम्भ हुआ, मुझे नहीं पता और ना ही मैं खोज सकता। कब मैं इस संसार से बँध गया, यह भी मुझे नहीं पता। मेरा सांसारिक जीवन संभवतः अनादि काल से चल रहा है और अब मेरा लक्ष्य परमात्मा की शरण में जाना है। इसके लिए मुझे आसक्ति को त्यागना होगा, मोह से मुक्त होना होगा।  


जिस ब्रह्माण्ड में मैं रह रहा हूँ, वह परमात्मा के उस शाश्वत धाम से भिन्न है। परमात्मा का शाश्वत धाम एक आध्यात्मिक जगत है, जो दिव्य प्रकाश से प्रकाशित है।  


हमारे अस्तित्व के दो पक्ष हैं - 


(1) भौतिक अस्तित्व - वर्तमान शरीर स्वरूप 


(2) आध्यात्मिक अस्तित्व 


भौतिक अस्तित्व जन्म, मृत्यु, ज़रा और व्याधि के दुःखों से भरा पड़ा है। इसमें हम शरीर और मन की धारणा से शासित होते हैं। आध्यात्मिक अस्तित्व में निर्बाध आध्यात्मिक जीवन मिलता है जो शाश्वत होने के साथ आनंद और ज्ञान से परिपूर्ण होगा। आध्यात्मिक अस्तित्व में आत्मा परमात्मा के निरंतर दिव्य संपर्क में रहेगी। हमें अपनी चेतना अर्थात् आत्मा को परमात्मा पर केंद्रित करना चाहिए। परमात्मा से जुड़ने के लिए हमें ध्यान, भक्ति, और निस्वार्थ सेवा का अभ्यास करना चाहिए। विज्ञान भौतिक जगत की व्याख्या करता है, परंतु आत्मा और परमात्मा के रहस्य को समझने के लिए आध्यात्मिक चिंतन आवश्यक है। 


सार 


इस मानव जीवन का उद्देश्य आत्मा को परमात्मा से जोड़ना है। ध्यान, प्रार्थना, निस्वार्थ सेवा, और शास्त्रों का अध्ययन इस मार्ग को प्रशस्त करते हैं। प्रत्येक दिन परमात्मा का स्मरण करें, उनकी कृपा के लिए आभार व्यक्त करें, और अपने कर्मों को उनकी सेवा में समर्पित करें। ऐसा करके हम जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त होकर शाश्वत धाम में शांति व आनंद प्राप्त कर सकते हैं। 


सादर,

केशव राम सिंघल 


Tuesday, May 20, 2025

114 - गीता अध्ययन एक प्रयास

गीता अध्ययन एक प्रयास 

जय श्रीकृष्ण 🙏 

गीता अध्याय 12 - भक्तियोग 

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भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन को भगवान् के साकार, निराकार और सर्व व्यापक तत्व को बता चुके हैं। गीता के बारहवें अध्याय में भगवान् भक्तियोग के बारे में अर्जुन को ज्ञान देते हैं। 


12 / 1 

अर्जुन उवाच 

एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते।

ये चाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमाः।। 


12 / 2 

श्रीभगवानुवाच 

मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते। 

श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः।। 


12 / 3 

ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते।

सर्वत्रगमचिन्त्यं च कुत्स्थामचलं ध्रुवम्।। 


12 / 4 

संनियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः।

ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभुतहिते रताः।। 


12 / 5 

क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम्।

अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते।। 


12 / 6 

ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि संन्यस्य मत्पराः।

अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते।।


12 / 7 

तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात्।

भवामि न चिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम्।। 


12 /  8 

मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय।

निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशय।।


12 / 9 

अथ चित्तं समाधातुं न शक्नोषि मयि स्थिरम्।

अभ्यासयोगेन ततो मामिच्च्हाप्तुं धनञ्जय।। 


12 /  10 

अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमो भव।

मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्सिद्धिमवाप्स्यसि।। 


12 / 11 

अथैतदप्यशक्तोऽसि कर्तुं मद्योगमाश्रितः।

सर्वकर्मफ़लत्यागं ततः कुरु यतात्मवान्।। 


12 / 12 

श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते।

ध्यानात्कर्मफ़लत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्।। 


12 / 13 

अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करून एव च।

निर्ममो निरहंकारः समदुःखसुखः क्षमी।।


12 / 14 

संतुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चयः।

मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः।। 


12 / 15 

यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च यः। 

हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः स च मे प्रियः।। 


12 / 16 

अनपेक्षः शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथः।

सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्तः स मे प्रियः।।


12 / 17 

यो न ह्यष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति।

शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे प्रियः।। 


12 / 18 

समः शत्रो च मित्रे च तथा मानापमानयोः।

शीतोष्णसुखदुःखेषु समः सङ्गविवर्जितः।।


12 / 19 

तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी सन्तुष्टो येन केनाचित्।

अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नरः।।


12 / 20 

ये तु धर्मामृतमिदं यथोक्तं पर्युपासते।

श्रद्दधाना मत्परमा भक्तास्तेऽतीव मे प्रियाः।। 


भावार्थ 


अर्जुन ने भगवान् श्रीकृष्ण से कहा - 


इस प्रकार निरन्तर लगे हुए भक्तजन आपकी पूजा करते हैं या जो अप्रकट ब्रह्म की पूजा करते हैं, उनमें से कौन सा योग मार्ग सर्वश्रेष्ठ है? 


भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा - 


जो लोग मुझमें मन लगाकर सदैव स्थिर होकर मेरी पूजा करते हैं और परम श्रद्धा से युक्त हैं, मैं उन्हें योग में परम सिद्ध मानता हूँ। जो इन्द्रिय अनुभूति से परे हैं, अवर्णनीय हैं, अव्यक्त हैं, जिनकी वे पूजा करते हैं, जो सर्वव्यापी और अकल्पनीय है और जहाँ भी है, वहाँ निश्चित रूप से अपरिवर्तनीय है। जो इन्द्रिय-समूह को वश में करके वे सर्वत्र समचित्त और समदर्शी रहते हैं, जो समस्त प्राणियों के कल्याण में तत्पर रहते हैं, वे मुझे ही प्राप्त करते हैं। जिन लोगों का मन भगवान् के अव्यक्त में आसक्त है, उनके लिए दुःख अधिक है, क्योंकि अव्यक्त में आसक्ति मार्ग देहधारी मनुष्य के लिए अधिक कष्टकर होता है। लेकिन जो लोग अपने समस्त कर्मों को मुझे अर्पित कर देते हैं और मुझमें ही समर्पित हो जाते हैं, वे अनन्त योग से मेरा ध्यान करते हुए मेरी पूजा करते हैं। मैं उन्हें मृत्यु और भवसागर से मुक्ति दिलाने वाला हूँ। हे अर्जुन, जिनका मन मुझमें स्थिर है, उनके लिए मैं जन्म-मृत्यु के चक्र से शीघ्र उद्धार करने वाला हूँ। अपना मन केवल मुझमें ही लगाओ और अपनी बुद्धि मुझमें ही एकाग्र करो। इस प्रकार तुम निःसंदेह मुझमें वास कर सकोगे। हे अर्जुन, यदि तुम अपना मन मुझ पर स्थिर नहीं कर सकते, तो भक्तिरूप मार्ग से मुझे प्राप्त कर सकते हो। यदि तुम भक्ति योग के विधि-विधानों को करने में असमर्थ हो, किन्तु मेरे लिए कर्मो के द्वारा समर्पित रहो। मेरे लिए भी कर्म करते हुए भी तुम सिद्धि को प्राप्त कर सकते हो । मेरे योग का आश्रय लेने के लिए यदि तुम यह भी करने में असमर्थ हो, तो फिर आत्मसंयम के साथ सभी कर्मों के फलों का त्याग कर दो। अभ्यास से ज्ञान श्रेष्ठ है, और ज्ञान से ध्यान श्रेष्ठ है, ध्यान से कर्मफल का त्याग श्रेष्ठ होता है और ऐसे त्याग से शांति प्राप्त होती है। जो सभी प्राणियों का मित्र और कर्ता है, वह किसी से घृणा नहीं करता। ऐसा व्यक्ति आसक्ति और अहंकार से मुक्त होता है, दुःख और सुख में समान रहता है, तथा क्षमावान होता है। ऐसा व्यक्ति सदैव संतुष्ट, आत्म-संयमी, दृढ़ निश्चयी होता है, जिसने अपना मन और बुद्धि मुझे समर्पित कर दिया है और जो मेरा भक्त है, वह मुझे प्रिय है। जिससे दुनिया नहीं डरती, और जो दुनिया से नहीं डरता, जो हर्ष, क्रोध, भय और चिंता से मुक्त है, वह मुझे प्रिय है। जो निःस्वार्थ, शुद्ध, सक्षम, उदासीन और पीड़ा से मुक्त है। जो समस्त कर्मों को मुझे अर्पित कर देता है, वह मुझे प्रिय है। जो घृणा नहीं करता, शोक नहीं करता, इच्छा नहीं करता। जो अच्छाई और बुराई का त्याग कर देता है और भक्ति से पूर्ण है, वह मुझे प्रिय है। जो शत्रु और मित्र के प्रति, तथा सम्मान और अपमान के प्रति समान है। जो सर्दी और गर्मी में, सुख और दुःख में सम रहता है और आसक्ति से रहित है। जो निन्दा और प्रशंसा समान भाव रख संतुष्ट और मौन रहता है। जो घर-बार की परवाह नहीं करता, मन से स्थिर, भक्त है, वह मेरा प्रिय है। जो लोग भक्ति के इस धर्म-पथ की उपासना करते हैं, मुझमें श्रद्धा रखते हैं और मुझमें पूर्णतया तत्पर रहते हैं, वे मुझे बहुत प्रिय हैं। 


प्रसंगवश 


गीता का बारहवाँ अध्याय, भक्तियोग, भक्ति के मार्ग को समझने में महत्वपूर्ण है। इसमें भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन के प्रश्न का उत्तर देते हैं कि साकार (भगवान के व्यक्त रूप) और निराकार (अव्यक्त, निर्गुण) भक्ति में से कौन सा मार्ग श्रेष्ठ है। इस अध्याय में भगवान् श्रीकृष्ण बताते हैं कि जो भक्त उनके साकार रूप में (उनके व्यक्तित्व में) श्रद्धा और एकाग्रता के साथ भक्ति करते हैं, वे सबसे श्रेष्ठ हैं, क्योंकि यह मार्ग सरल और अधिक सुलभ है। निराकार, निर्गुण ब्रह्म की उपासना कठिन है, क्योंकि यह देहधारी मनुष्य के लिए जटिल और दुखदायी हो सकता है। फिर भी, जो इसे समर्पण और संयम के साथ करते हैं, वे भी भगवान को प्राप्त करते हैं। भगवान् श्रीकृष्ण भक्ति के निम्न क्रमबद्ध मार्ग बताते हैं - 


   - मन को भगवान में स्थिर करना 

   - यदि यह संभव न हो, तो अभ्यास योग

   - यदि अभ्यास भी कठिन हो, तो भगवान के लिए कर्म करना 

   - और यदि यह भी संभव न हो, तो कर्मफल का त्याग करना 


गीता के इस अध्याय में ज्ञान, ध्यान, और कर्मफल त्याग का क्रमबद्ध महत्व बताया गया है। कर्मफल त्याग से शांति प्राप्त होती है, जो भक्ति का अंतिम लक्ष्य है। गीता के इस अध्याय में एक आदर्श भक्त के गुणों का वर्णन है, जैसे कि सभी प्राणियों के प्रति मैत्री, करुणा, निर्ममता, निरहंकारिता, समदृष्टि, संतुष्टि, और आत्मसंयम वाला भक्त भगवान को अत्यंत प्रिय होता है। जो भक्त श्रद्धा और समर्पण के साथ इस भक्तियोग का पालन करते हैं, वे भगवान के परम प्रिय होते हैं और उन्हें परम शांति प्राप्त होती है।


भक्तियोग भगवद्गीता का एक महत्वपूर्ण अध्याय है, जो भक्ति को सबसे सरल और प्रभावी मार्ग के रूप में प्रस्तुत करता है। यह साकार और निराकार भक्ति की तुलना करता है, लेकिन साकार भक्ति को अधिक सुलभ और श्रेष्ठ बताता है। यह अध्याय भक्त के गुणों और भक्ति के विभिन्न स्तरों को समझाकर भक्तियोग को जीवन में अपनाने की प्रेरणा देता है। परम सत्य की अनुभूति की विभिन्न विधियों में भक्तियोग श्रेष्ठ मार्ग है जिससे भगवान् को प्राप्त किया जा सकता है 


सादर,

केशव राम सिंघल